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________________ ४१६ ] [ पं० रतनचन्द जैन पूर्वकोटि से उपरिम श्रायुवाला परभविक आयु कब बाँधता है, इसका स्पष्टीकरण शंका-क्या पूर्वकोटि से उपरिम आयुवाला जीव भुज्यमान आयु में छह माह शेष रहने पर अगले भवकी आयु को बांधता है ? समाधान - एकसमय आदि अधिक पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्य व तियंच भोगभूमिया होते हैं, क्योंकि कर्मभूमिया मनुष्य व तियंच की आयु एकपूर्वकोटि से अधिक नहीं होती है । "समयाहियपुव्व कोडिआदि उवरिमआउआणि असंखेज्जवस्साणि त्ति अतिदेसादो ।" मुख्तार एकसमयअधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे की सब आयु असंख्यातवर्षं प्रमाण मानी जाती है, ऐसा प्रतिदेश है | असंख्यातवर्षं भ्रायुवाले मनुष्य व तिर्यंच भोगभूमिया होते हैं । असंख्यातवर्ष की आयुवाले जीवों की आयु का कदलीघात नहीं होता है क्योंकि वे अनपवर्त्य ( निरुपक्रम) आयुवाले होते हैं । कहा भी है "औपपादिक चरमोत्तमबेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः । " ( मोक्षशास्त्र २२५३ ) औपपादिक ( देव, नारकी ), चरमशरीरी, असंख्यातवर्ष की प्रायुवाले ( भोगभूमिया ) जीव अनपवत्यं ( निरुपक्रम) आयुवाले होते हैं, क्योंकि उनकी श्रायुका उपक्रम नहीं होता है । धवल पु० १० पृ० २२८ ) जो जीव निरुपक्रम आयुवाले होते हैं वे मुज्यमान आयु में छहमाह शेष रहनेपर परभविक आयुबंध के योग्य होते हैं । कहा भी है "freeeकमाउआ पुण छम्मासवसेसे आउअबंधपाओग्गा होंति । तत्थ वि एवं चैव अट्ठागरिसाओ वत्तवाओ ।" ( धवल पु० १० पृ० २३४ ) जो निरुपमायुष्क जीव होते हैं वे अपनी भुज्यमानश्रायु में छह माह शेष रहनेपर आयुबंध के योग्य होते हैं। यहाँ भी उत्तरोत्तर दो-दो तिहाई बीत जानेपर और एक-एक तिहाई शेष रहनेपर आठअपकर्ष ( प्रायुबंधयोग्यकाल ) होते हैं । इस प्रकार पूर्वकोटि से उपरिम प्रायुवाले जीव भुज्यमानआयु में छहमाह शेष रहनेपर परभविक आयुबंध के योग्य होते हैं । शंका---'' एकसमय अधिक पूर्वकोटिआदि उपरिम आयुविकल्पों का घात नहीं होता। जो जीव ऐसी आयु का बंध करता है वह परमवसम्बन्धी आयुका बंध किये बिना ही छह महीने के सिवाय सब भुज्यमानआयु को गला देता है ।" इसका भाव समझ में नहीं आया ? समाधान — इसका भाव यह है - जिन मनुष्य या तियंचों की आयु एकपूर्वकोटि से अधिक होती है वे असंख्यातवर्ष की आयुवाले माने जाते हैं । कहा भी है "समयाहियपुष्वको डिआ विजवरिमआउआणि असंखेज्जवस्त्राणि ति अतिदेसावो ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only ( धवल पू० १० पू० २२८ ) www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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