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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४१३ प्रायुबन्ध के योग्य परिणाम शंका-अगली आयु का बन्ध करनेवाले कौन से विशेष परिणाम होते हैं अथवा उन परिणामों को क्या पशा होती है ? समाधान-आयुबन्ध के लिये न तो अत्यन्त तीवसंक्लेश परिणाम होने चाहिए और न ही अत्यन्त विशुद्धपरिणाम होने चाहिये, किन्तु मध्यमपरिणाम होने चाहिये । लेस्साणं खल अंसा छव्वीसा होति तस्थ मज्झिमया। आउगबंधणजोगा, अट्ठवगरिसकाल-भवा ॥ ५१८ ॥ (गो. जी.) अर्थ-लेवाओं के कुल २६ अंश हैं, इनमें से मध्य के पाठ अंश जो कि आठ अपकर्षकाल में होते हैं वे ही प्रायुकर्म के बंध के योग्य होते हैं । भुज्यमानायु के तीन भागों में से दो भाग बीतने पर अवशिष्ट एकभाग के प्रथम अन्तर्मुहूर्तकाल को प्रथम अपकर्ष कहते हैं। शेष एक भाग के दो बटा तीन भाग बीतने पर दूसरा अपकर्ष होता है। इस प्रकार शेष के दो बटा तीन भाग बीतने पर आयु-बंध का अपकर्ष काल आता है। इन पाठ अपकर्षों में से जिस अपकर्ष में लेश्या के पाठ मध्यम मंशों में से यदि कोई अंश होगा तो उसी अपकर्ष में आयू का बन्ध होगा। दूसरे अपकर्षों में आयु बन्ध नहीं होगा। देव, नारकी तथा भोगभूमिया जीवों की आयु के अन्तिम छह माह में पाठ अपकर्ष होते हैं। -जं. ग. 29-8-68/VI/ रो.ला. मित्तल चतुर्गति के जीवों के प्रायुबन्ध का विस्तृत नियम शंका-मनुष्यगति वाले अपनी आयु के त्रिमाग शेष रहने पर परभवसम्बन्धी आयु बांधते हैं। क्या देव और नारकियों के भी आय का त्रिभाग शेष रह जाने पर ही परमविक आय का बन्ध होता है ? समाधान-जीव दो प्रकार के होते हैं, सोपक्रमायुष्क ( अर्थात्-जिनकी अकालमृत्यु संभव है ) दूसरे निरुपक्रमायुष्क ( अर्थात्-जिनकी अकाल मृत्यु संभव नहीं है; देव, नारकी, भोगभूमिया के मनुष्य व तियंच )। जो निरुपक्रमायुष्क जीव हैं ( देव, नारकी, भोगभूमिया ) वे अपनी भुज्यमानआयु में छह माह शेष रहने पर परभवसम्बन्धी आयुबन्ध के योग्य होते हैं। इस छह माह के त्रिभाग शेष रहने पर अथवा शेष के विभाग शेष रहनेपर आयबन्ध के योग्य होते हैं। इसप्रकार छहमाह से लेकर असंक्षेपाताकाल तक पाठ बार परभवसम्बन्धी प्राय को बांधने के योग्य काल होते हैं। जो सोपक्रमायुष्क हैं ( कर्मभूमि के मनुष्य तियंच ) उनके अपनी-अपनी भुज्यमान आयुस्थिति के दोविभाग बीत जाने पर वहाँ से लेकर असंक्षेपाद्धाकाल तक पाठबार परभवसम्बन्धी आयु को बांधने के योग्य काल होते हैं। उनमें प्रायुबन्ध के योग्यकाल के भीतर कितने ही जीव आठबार, कितने ही सातबार, कितने ही छहबार, कितने ही पांचबार, कितने ही चारबार, कितने ही तीनबार, कितने ही दोबार, कितने ही एकबार आयुबन्ध के योग्य परिणामों से परिणत होते हैं। जिन जीवों ने आयु के तृतीय विभाग के प्रथमसमय में परभवसम्बन्धी प्रायका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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