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________________ ४१० ] .. [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "अप्पमत्तापुग्यकरण-उवसमा बंधा" ( धवल पु० ८ पृ० ३८०) अर्थ-उपशमसम्यक्त्व में आहारशरीर व मंगोपांग का कोन बंधक है कौन प्रबंधक? अप्रमत्त व अपूर्वकरणगुणस्थानवाले उपशमसम्यग्दृष्टि बंधक हैं। मणपज्जव परिहारा उसमसम्मत्त दोण्णि आहारा । एदेसु एक्कपयदे णस्थि ति य सेसयं जाणे ॥ (धवल) अर्थ-मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम उपशमसम्यक्त्व, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग इनमें से किसी एक के होने पर शेष नहीं होते। -. ग. 5-12-66/VIII/ र. ला. गेंन, मेरठ निगोदिया जीव के अगली प्रायु के बन्ध योग्य परिणाम व काल शंका-जो जीव निगोदिया था वहाँ कौन से परिणामों द्वारा अगली गति का बंध किया ? अगली आयु का बंध किस अवस्था में किया? समाधान-निगोदियाजीव परभवसम्बन्धी आयु का बंध संक्लेशपरिणामों द्वारा भी कर सकता है तथा विशदपरिणामों द्वारा भी कर सकता है, इसमें कोई एकान्त नियम नहीं है। जो लब्ध्यपर्याप्तनिगोदियाजीव हैं वे अपर्याप्तअवस्था में और पर्याप्तनिगोदियाजीव पर्याप्तअवस्था में आयुका बंध करते हैं, किन्तु उनके दो तिहाई आयु बीत जाने से पूर्व आयु बंध नहीं होता है । -नं. ग. 15-1-68/VII/ .......... लब्ध्यपर्याप्त अपर्याप्तावस्था में तथा पर्याप्त जीव पर्याप्तावस्था में ही श्रायु का बन्ध करते हैं। शंका-अगली आय का बंध पर्याप्तअवस्था में होता है या अपर्याप्त अवस्था में ? समाधान-जो लब्ध्यपर्याप्त जीव हैं वे तो अपर्याप्तअवस्था में ही प्रायू बंध करते हैं, क्योंकि उनकी पर्याप्ति पर्ण नहीं होती और जिनके पर्याप्त नामकर्म का उदय है वे पर्याप्तअवस्था में ही बंध करते हैं. अर्थात सब पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् ही उनके आयुबंध संभव है ( धवल पु० १० पृ० २४० ) -. ग. 15-1-68/VII/ ......... मन के बिना भी निगोद के आयुबन्ध का हेतु शंका-निगोदिया जीव के मन नहीं होता है अतः मन के बिना वह आयुबंध किस प्रकार करता है ? समाधान-आयुबंध के लिये या अन्य सात कर्मों के बंध के लिये भी मन की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि असंज्ञी जीवों के आठों प्रकार का कर्मबंध पाया जाता है। कर्मबंध के कारण मिथ्यात्व, कषाय और योग हैं। कहा भी है "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमावकषाययोगा बंधहेतवः ॥१॥" ( तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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