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________________ ३१० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "ओह वूण मिच्छतं तिष्णि भागं करेवि सम्मत्तं मिच्छतं सम्मामिच्छतं ॥ ७ ॥ तेण ओहट्ठ दूखेति उसे खंडयघादेण विणा मिच्छताणुभागं घादिय सम्मत्तसम्मामिच्छत्त अणुभागायारेण परिणामियपढमसम्मत्तम्प डिवण्ण पढमसमए चैव तिष्ण कम्मं से उप्पावेदि ।" ( धवल पु० ६ पृ० २३४-२३५ ) अर्थ - अन्तर करण करके मिथ्यात्व कर्म के तीन भाग करता है - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व || ७ || 'अन्तर करण करके' ऐसा कहने पर कांडकघात के विना मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग को घात कर और उसे सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व के प्रकृति अनुभाग रूप आकार से परिणमाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में ही मिध्यात्व कर्म के तीन कर्माश अर्थात् भेद या खंड उत्पन्न करता है । "एक्केण अणादियमिच्छादिट्टिणा तिष्णि करणाणि काढूण उवसमसम्मत्तं पडिवण्ण पढमसमए अणंतो संसारो छष्णो अपोलपरियट्ट मेत्तो कदो ।" ( धवल पु० ५ पृ० ११ ) एक अनादिमिथ्यादृष्टिजीव ने श्रधः प्रवृत्तादि तीनोंकरण करके उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होने के प्रथम समय में अनन्तसंसार को छिनकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया । इसप्रकार २८ प्रकृति के सत्त्व के विषय में दो मत हैं जिनका उल्लेख स्वयं श्री वीरसेन आचार्य ने धवल ग्रंथ में किया है । - जै. ग. 14-8-69 / VII / कमला जैन मिथ्यात्व के तीन टुकड़े एवं अनन्त संसार की सान्तता कब होती है; इस विषय में मतद्वय शंका-उपासकाध्ययन में सम्यक्त्व के माहात्म्य का कथन करते हुए लिखा है कि सम्यक्त्व संसार को सान्त कर देता है किन्तु सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि अर्धपुद्गलपरिवर्तन शेष रहने पर सम्यग्दर्शनोत्पत्ति की योग्यता आती है । सो कैसे ? समाधान - इस संबंध में दो मत पाये जाते हैं । कुछ आचार्यों का मत है कि करणलब्धि में अनादिमिथ्याष्टि मिथ्यात्वद्रव्य के तीन टुकड़े करके ( १ ) सम्यक्त्वप्रकृतिरूप, (२) सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिरूप, (३) सम्यत्वप्रकृतिरूप परिणमा देता है तथा अनादिमिथ्यादृष्टिजीव करणलब्धि में अनन्तसंसार को काटकर सान्त कर देता है अर्थात् अर्धपुद्गल परिवर्तनमात्र कर देता है । सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में इस मत का अनुसरण किया गया है । इसीलिये पाँचप्रकृति ( एक मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबन्धी कषाय ) के उपशमसम्यक्त्व का कथन नहीं किया है किन्तु "आसां सप्तानां प्रकृतीनामुपशमादौपशमिकं सम्यक्त्वं ।" इन शब्दों द्वारा सात प्रकृतियों ( सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, अनन्तानुबन्धीक्रोध, अनन्तानुबन्धीमान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धीलोभ) के उपशम से श्रौपशमिकसम्यक्त्व की उत्पत्ति का कथन किया है । इसी प्रकार जिस अनादिमिध्यादृष्टि ने करणलब्धि द्वारा अनन्तसंसार को काटकर अर्धपुद्गल परिवर्तनमात्र कर दिया है तथा प्रायोग्यलब्धि के द्वारा जिसने उत्कृष्ट कर्मस्थिति को काटकर अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिप्रमाण कर दिया है वह जीव प्रथमोपशम- सम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य होता है। इस मत की दृष्टि से सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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