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________________ ३८८ 1 [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : (५) "मिथ्यादर्शनस्यापक्षयेऽसंयत-सम्यग्दृष्टेरनन्तसंसारस्य क्षीयमाणस्वसिद्धः संख्यातभवमात्रतया तस्य संसारस्थितेः।" (श्लोकार्तिक पु०१पृ० ५४८) चौथे गुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि के मिथ्यादर्शन का प्रभाव हो जाने पर अनन्तकाल तक होनेवाले संसार का अभाव हो जाना सिद्ध हो जाता है। उसकी संख्यातभवमात्र संसारस्थिति रह जाती है। (६) "अणादिमिच्छाविष्टुिम्मि तिणि वि करणाणि काऊण उथसमसम्मत्तं पडिवण्णम्मि अणंतसंसारं खेत्तूणविद अद्धपोग्गलपरियट्टम्मि।" ( जयधवल पु० २ पृ० २५३ ) अर्थ-अनादिमिथ्याष्टिजीव तीनोंकरणों को करके उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और अनन्तसंसार को छेदकर संसार में रहने के काल को अर्धपूदगलपरिवर्तनप्रमाण किया। (७) एगो अणावियमिच्छाविट्ठी तिण्णि वि करणाणि काऊण पढमसम्म पडिवण्णो। तत्थ सम्मत्त पडि. वण-पढमसमए संसारमणतं सम्मत्तगुरपण छेत्तू ण पुणो सो संसारो तेण अलपोग्गलपरियट्टमेतो कदो।" (जयधवल पु० २ पृ० ३९१) अर्थ-एक अनादिमिथ्याष्टिजीव तीनोंकरणों को करके प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तथा सम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथमसमय में सम्यक्त्वगुण के द्वारा अनन्तसंसार को छेदनकर उस संसार को अर्घपुद्गल. परिवर्तनमात्र कर दिया। इन आगम प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व अनादिमिथ्यादृष्टि का संसारकाल मर्यादित-अनन्तरूप है और सम्यक्त्वोत्पत्ति के प्रथमसमय में वह अमर्यादित-अनन्तसंसारकाल कटकर अर्धपदगलपरिवर्तनमात्र रह जाता है। किसी अनादिमिथ्यारष्टि का अमर्यादित-अनन्तसंसारकाल करणलब्धि में कटकर आई. पुद्गलपरिवर्तनमात्र संसारकाल रह जाता है। आगम प्रमाण निम्नप्रकार है "अणादियमिच्छाइट्टिस्स तिणि वि करणाणि अद्धपोग्गलपरियट्टस्स बाहि काऊण असुपोग्गलपरियादिसमए उवसमसम्मत्तं घेत्तूण।" (धवल पु०.७ पृ० १६३ ) अर्थ-अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल करने से पूर्व अनादिमिथ्यादृष्टिजीव अधःप्रवृत्त आदि तीनों करणों को करके अर्धपुदगल परिवर्तन के प्रथमसमय में उपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करता है। नोट-इसी प्रकार का कथन धवल पु० ७ पृ० २१५ व २२४ पर भी है । सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व करण परिणामों के द्वारा चूकि अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल कर दिया गया है अतः यह कहा जाता है कि अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल शेष रहने पर सम्यक्त्वउत्पन्न होता है। यही बात मिथ्यात्वद्रव्य के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूप तीन खण्ड के संबंध में है। किसी अनादिमियादृष्टि जीव के मिथ्यात्व के तीनखण्ड प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रथम समय में होते हैं । धवल पE पृ० २३४ ) और किसी के करण लब्धि में तीन टुकड़े होते हैं ( धवल पु० ६ पृ० ३८)। -जे. ग. 29-3-73/VII/मुनि श्री आदिसागरणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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