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________________ ३८४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। देता है, अतः इस मतानुसार यह कहा जाता है कि अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल शेष रहने पर तथा कर्म-स्थिति अन्तःकोटाकोटी प्रमाण रह जाने पर सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। कहा भी है "ज त बसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स संतकम्मं पुण तिविहं-सम्मत्तं मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त चेवि ॥२१॥ बंधेण एयविहं दसणमोहणीयं कधं संतादो तिविहत्तं पडिवज्जदे ? ण एस दोसो, जंतएण दलिज्जमाणकोद्दवेसु कोद्दव्व-तदुलद्धतदुलाणं व दंसणमोहणीयस्स अपुवादि करणेहि वलियस्स तिविहत्तुवलंभा।" (धवल ६।३८-३९) _सूत्रार्थ-जो दर्शनमोहनीय कर्म है वह बन्ध की अपेक्षा एक प्रकार का है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकार का है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ।। २ ॥ टोकार्थ-बंध से एक प्रकार का दर्शनमोहनीयकर्म सत्त्व की अपेक्षा तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ? यह कोई दोष नहीं, क्योंकि जाते से ( चक्की से ) दले गये कोदों में- कोदों, तन्दुल और अर्ध-तन्दुल इन तीन विभागों के समान अपूर्व करणआदि परिणामों के द्वारा दले गये दर्शनमोहनीय की विविधता पाई जाती है। प्रथम मतानुसार दर्शन मोहनीय के तीन टुकड़े सम्यग्दर्शन के द्वारा होते हैं और इस दूसरे मतानुसार दर्शनमोहनीय के तीन टुकड़े करणलब्धि द्वारा बतलाये गये हैं। अर्थात् दूसरे मतानुसार मिथ्यात्व के तीन खंड हो जाने पर प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। इसप्रकार प्रथम मतानुसार सम्यग्दर्शन के द्वारा अनन्तसंपार छिदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र रह जाता है। दूसरे मतानुसार अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्रकाल शेष रहने पर प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन होता है । कहा भी है "कर्मवेष्टितो भव्यजीवः अर्धपुद्गल-परिवर्तनकाले उद्वरिते सति औपश मिकसम्यक्त्व-ग्रहणयोग्यो भवति । एका काललब्धिरियमुच्यते । यवा अन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितिकानि कर्माणि बन्धं प्राप्नुवन्ति, भवन्ति निर्मल. परिणामकारणात् सत्कर्माणि, तेभ्यः संख्येयसागरोपमसहस्रहीनानि अन्तः कोटाकोटिसागरोपमस्थितिकानि भवन्ति, तदा औपशमिक सम्यक्त्वग्रहणयोग्य आत्मा भवति । इयं द्वितीय काललब्धिः। (स्वामिकातिकेयानूप्रेक्षा) कर्मवेष्टित भव्यजीव के परिणामों के अतिशय से जब अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल अवशेष रह जाता है तब प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता होती है। यह एक काललब्धि है। जब परिणामों की विशुद्धता से अन्तःकोटाकोटी स्थितिवाला कर्मबंध व कर्मसत्त्व रह जाता है तब प्रथमोपशमसम्यक्त्व की योग्यता होती है यह दूसरी काललब्धि है। . इससे यह न समझना चाहिये कि ७० कोटाकोटीस्थितिवाले कर्म का एक-एक निषेक उदय में आकर निर्जरा होते होते अन्त:कोटाकोटीस्थिति शेष रह जाने पर प्रथमोपशमसम्यक्त्व की योग्यता है, किन्तु विशुद्ध परिणामों के अतिशय से ७० कोटाकोटी कर्मस्थिति काटकर अन्त:कोटाकोटी करनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्व की योग्यता होती है उसीप्रकार विशुद्धपरिणामों से अनन्तानन्तसंसार को काटकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर देता है तब प्रथमोपशमसम्यक्त्व की योग्यता होती है, अन्यथा आर्ष ग्रन्थों से विरोध आजायगा। श्री कुंदकूदआचार्य ने मावपाहड़ में कहा भी है "जिणधम्म भाविभवमहणं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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