SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । अर्थ-एक अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यजीब तीनों ही करणों को करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। "तथा सम्यक्त्व के प्राप्त होने के प्रथम समय में सम्यक्त्व गुरण के द्वारा अनन्त संसार को छेदन कर उसने संसार को अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र कर दिया।" "संसारतटे निकटः सम्यक्त्वोत्पत्तितः उत्कृष्टेन अर्धपुड्गलपरिवर्तनकालपर्यन्तं संसार-स्थायीत्यर्थः ।" ( स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा)। अर्थ-जिसका संसार तट निकट हो अर्थात् सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिकाल से जिसकी संसार स्थिति का उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र रह गया हो। "मिथ्यावर्शनस्यापक्षयेऽसंयतसम्यग्दृष्टेरनन्तसंसारस्य क्षीयमाणत्व सिद्ध।" (श्लोकवातिक १११०५)। अर्थात-मिथ्यादर्शन ( दर्शनमोहनीय ) कर्म के उदय का प्रभाव हो जाने पर ( सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर ) अनन्त संसार का क्षय हो जाता है । इस प्रकार अनेक प्राचार्यों ने यह बतलाया है कि जिस भव्य अनादि मियादृष्टि जीव का संसार काल अन्त रहित था अर्थात् जिसके मोक्ष जाने का काल निश्चित या नियत नहीं था, सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाने पर उसका संसारकाल उत्कृष्ट रूप से अर्घपुद्गलपरिवर्तन मात्र रह जाता है अर्थात् यह निश्चित हो जाता है कि वह भव्यजीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल में मोक्ष चला जायगा। श्री कुन्दकुन्द आचार्य भी इसी बात को भाबपाहुड़ गाथा ८२ में निम्न शब्दों द्वारा कहते हैं। "तह धम्माणं पवरं जिगधम्मं मावि भवमहणं ।" अर्थात्-धर्मों में सर्वश्रेष्ठ जिनधर्म है। जिसकी श्रद्धामात्र से ( सम्यग्दर्शन से ) भावि अनन्तसंसार •का नाश हो जाता है। "जो यह मानते हैं कि सब जीवों के अर्थात अनादिमिथ्याष्टि जीवों के भी मोक्ष जाने का काल नियत है अन्यथा सर्वज्ञता की हानि हो जायगी, क्या उनको उपयुक्त सर्वज्ञवाणी पर श्रद्धा है। जिसको सर्वज्ञ-वारणी पर श्रया नहीं है वह सर्वज्ञ के मानने वाला नहीं हो सकता। -जें. ग. 16-11-67/VII/ क. प. सम्यक्त्व के प्रथम समय में अनन्त संसार छिद कर सान्त हो जाता है शंका-२८ नवम्बर १९६६ के जैनगजट में समाधान करते हुए यह लिखा है कि जब तक जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न हो तब तक उसका अनन्तसंसार रहता है और सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर अनन्तसंसार छिवकर अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण रह जाता है, किन्तु इसके विपरीत १२ दिसम्बर के जैनगजट में समाधान में यह लिखा है कि मूलाराधना में बतलाया है कि भरतचक्रवर्ती के ९२३ पुत्र नित्य-निगोव से निकलकर मनुष्यभव धारण कर केवलज्ञान प्राप्त कर उसी भव से मोक्ष गये। इन्होंने अर्ध-गलपरिवर्तनकाल कब किया था, जब उसी भव से मोक्ष गये? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy