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________________ ३६६ ] क्षायिक सम्यक्त्वी के भवों की जघन्य व उत्कृष्ट संख्या शंका- यदि किसी मनुष्य को क्षायिकसम्यक्त्व हो जावे तो उसके मोक्ष जाने का क्या नियम है समाधान - क्षायिकसम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाने के पश्चात् मनुष्य उसीभव से भी मोक्ष जा सकता है । मनुष्य से देव या नारकी होकर तीसरेभव में मोक्ष जावेगा यदि सम्यक्त्व से पूर्व मनुष्यायु या तियंचायु का बंध हो गया है तो वह क्षायिकसम्यम्डष्टि मनुष्य मरकर भोग भूमि का मनुष्य या तियंच होगा और वहाँ से सौधर्म ईशानस्वर्ग का देव होकर कर्मभूमिया का मनुष्य होकर मोक्ष चला जायगा । इस प्रकार क्षायिकसम्यग्दष्टि मनुष्य अधिक से अधिक चौथेभव में अवश्य मोक्ष चला जाता है, इससे अधिक काल तक वह संसार में नहीं रह सकता है । - जै. ग. 28-12-72 / VII / क. दे. [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । विनष्ट सम्यक्त्वी जीवों में भी कथंचित् भेद शंका- प्राप्त होकर जिनका सम्यक्त्व छूटता नहीं उन सबमें समानता है या कुछ विशेषता है ? समाधान - प्राप्त होकर जिनका सम्यक्त्व छूटता नहीं उन सबमें कथंचित् विशेषता भी है, क्योंकि कोई तद्भव मोक्षगामी है, कोई एकभवावतारी है, कोई सात-आठ भवावतारी भी होते हैं । जीवों के मोक्ष जाने के काल का नियम नहीं है । श्री अकलंकदेव ने कहा भी है- 'काला नियमाच्च निर्जरायाः । ततश्च न युक्तम्मध्यस्य कालेन निः यसोपपत्तेः ।' 'भव्यजीव अपने नियतकाल पर मोक्ष जायगा ।' ऐसा कहना उचित नहीं है । - जै. ग. 8-1-70 / VII / रो. ला. मि. क्षपणा में ८ वर्ष स्थिति करने के समय में अपकृष्ट द्रव्य का निक्षेपरण शंका- धवल पु० ६ पृ० ३६०-३६१ पर इन पंक्तियों का भाव समझ में नहीं आया - " विसेसाहियं चेव दिसमा होदि । कुवो ? विदिय समय ओकडिददव्यस्स अट्ठवस्सेगट्टिदिणिसित्तस्स अट्ठवसेयद्विविदव्वं णिसेगभागहारेण खंडिदेगखंडमेत्तगोउच्छविसेसावो असंखेज्जगुणस्स अट्ठवस्सेगट्टिदि-पदेसग्गं पेक्खिऊण असंखेज्जगुण होणत्तादो । एस कमो जाव पढमट्ठिदिखंडयदुच रिमफालि त्ति" इन पंक्तियों का भाव क्या है ? समाधान - यह दर्शनमोह की क्षपणा से सम्बन्धित प्रकरण है । इसका भाव यह है-- सम्यक्त्वप्रकृति की आठवर्ष की स्थिति करने के दूसरे समय जो द्रव्य अपकर्षरण किया गया है, उस अपकृष्टद्रव्य में जो द्रव्य आठवर्ष की स्थिति के प्रत्येकनिषेक में निक्षेपण किया जाता है, वह द्रव्य गोपुच्छ विशेष ( चय ) से असंख्यातगुणा है और प्रत्येक निषेक के सत्तारूप द्रव्य ( प्रदेशाग्र ) के श्रसंख्यातवेंभाग हैं । यद्यपि पूर्व गुणश्रणीशीर्ष की अपेक्षा वर्तमान गुणश्रेणीशीर्ष में अपकृष्टद्रव्य व काण्डकफाली द्रव्य असंख्यातगुणा निक्षेपण किया गया है, तथापि वह द्रव्य पूर्व सत्तारूप द्रव्य के असंख्यात वेंभाग है । पूर्वगुणश्रेणीशीर्ष के सत्तारूपद्रव्य से वर्तमान गुणश्रेणीशीर्ष का सत्तारूप द्रव्य चयहीन है अतः पूर्वगुणश्रेणीशीर्ष से वर्तमान गुणश्रेणीशीर्ष विशेष का दृश्यमान द्रव्य विशेषहीन है, गुणाकाररूप नहीं है । Jain Education International - जै. ग. 16-5-74/ VI / ज. ला. जैन, भीण्डर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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