SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार 1 (१) क्षायिक सम्यक्त्व दूसरे यादि में नहीं होता (२) विसंयोजना तथा क्षपणा शब्द कथंचित् समान है । शंका- विसंयोजना और क्षपणा यदि पर्यायावाची शब्द नहीं है तो क० पा० पु० ५, पृष्ठ ५० पर 'जो दूसरे नरकादि में अनन्तानुबन्धीचतुष्क की क्षपणा कर लेता है' इन शब्दों से दूसरे नरक में भी क्षायिकसम्यक्त्व की उत्पत्ति की सूचना मिलती है । समाधान - विसंयोजना और संयोजना पर्यायवाची नाम नहीं हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क के स्कन्धों के परप्रकृतिरूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं। विसंयोजना का इसप्रकार लक्षण करने पर जिनकर्मों की परप्रकृति के उदयरूप से क्षपणा होती है उनके साथ व्यभिचार प्रा जायेगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि धनन्तानुबन्धी के अतिरिक्त पररूप से परिणत हुए अन्य कर्मों की पुनः उत्पत्ति नहीं पाई जाती है; और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो जाने पर भी मिध्यात्व का उदय आ जाने से पुन: संयोजना ( उत्पत्ति ) हो जाती है । अतः विसंयोजना का लक्षग क्षपणा से भिन्न है ( क० पा० पु० २, पृ० २१९ ) । क० पा० पु० ५, पृष्ठ ५० पर विशेषार्थं में जो अनन्तानुबन्धी को क्षपणा लिखी है वहां पर 'क्षपणा' से 'विसंयोजना' का अभिप्राय समझना चाहिए । मिथ्यात्व कर्म ( दर्शनमोह ) की क्षपरणा का आरंभ मनुष्य ही केवली के पादमूल में करता है, धन्यगति का जीव दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ नहीं कर सकता । नरक में क्षायिकसम्यग्डष्टि उत्पन्न होता है, किन्तु वह भी प्रथम रकमें उत्पन्न होता है, दूसरे आदि नरकों में उत्पन्न नहीं होता । अतः दूसरे आदिनरकों में क्षायिकसम्यका अस्तित्व नहीं है । - जै. सं. 12-2-59 / V / मां. सु. विका, ब्यावर पंचमकाल में किसी भी प्रकार से क्षायिकसम्यक्त्व नहीं उत्पन्न होता शंका-विवेहक्षेत्र से मरकर जो मनुष्य भरतक्षेत्र में पंचमकाल में जन्म लेता है, क्या वह क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो सकता है ? समाधान — जो मनुष्य विदेहक्षेत्र से मरकर भरतक्षेत्र में पंचमकाल में जन्म लेता है वह मिथ्यादृष्टि होता है । षट्खण्डागम पु० ६ ० ४७३-४७४ सूत्र १६३ व १६४ में यह कहा गया है कि संख्यातवर्षायुष्क मनुष्य, मनुष्यपर्याय से मरकर एकमात्र देवगति को ही जाता है । इसपर यह शंका की गई कि जिन कर्मभूमिज मनुष्यों ने देवगति को छोड़ अन्य गतियों की आयु बांधकर पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण किया है, उनका सूत्र १६४ में कथन क्यों नहीं किया गया ? श्री वीरसेन आचार्य ने इस शंका का उत्तर देते हुए कहा है कि जिन मनुष्यों ने देवगति के अतिरिक्त अन्य आयु अर्थात् नारक, तिथंच या मनुष्यायु का बंध किया है और उसके पश्चात् सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है उन मनुष्यों का आयुबंध के वश से मरणकाल में सम्यक्त्व छूट जायगा । वे आषं वाक्य इस प्रकार हैं- Jain Education International "माणुससम्माइट्ठी संखेज्जवासाउआ मणुस्सा मणुस्सेहि कालगद समाणा कदि गबीओ गच्छति ? ॥ १६३ ॥ एक्कं हि चेव देवव गच्छन्ति ॥ १६४ ॥ देवगई मोत्तूणष्णगईणमाउअं बंधितॄण जेहि सम्मतं पच्छा पडिवण्णं ते एत्थ किष्ण गहिदा ? ण, तेसि मिच्छत्तं गंतूणप्प से बंधाउअवसेण उप्पज्जमार्ण सम्मत्ताभावा ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy