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________________ ३६२ 1 [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । ....समाधान-क्षायिकसम्यग्दृष्टि अणुव्रती, देशसंयमी, संयमासंयम पंचमगुणस्थान वाले होते हैं। भी पढ़खंडागम धबल पुस्तक १५० ३९६, पत्र.१४५ में लिखा है 'क्षायिक सम्यग्हष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं।' अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि के पांचवां गुणस्थान भी होता है। धवल पुस्तक २१०११पर क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत का आलाप है। इसी प्रकार पृ०४३१ पर संयतासंयत जीवों के क्षायिक सम्यग्दर्शन कहा है । धवल पुस्तक ३ पृ० ४७४ व ४७५ सूत्र १७६ व टीका में कहा है 'क्षायिक सम्यादृष्टि संयतासंयतगुणस्थानवाले संख्यात होते हैं।' धवला पु० ४, पृ० १३३ सूत्र ७९ व टीका, पृष्ठ ३०३ सूत्र १६९ व टीका, पृ० ४८१ सूत्र ३१७ व टीका में क्षायिकसम्यादृष्टि संयतासंयतगुणस्थानवालों का क्षेत्र, स्पर्शन व काल का कथन है। धबल पुस्तक ५, सूत्र ३४० से ३४२ तक, १० १५७ व १५८ पर क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीव के संयतासंयतगुणस्थान के अन्तर का कथन है। धवल पुस्तक ५, १० २५६ सूत्र १८ में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयतगुणस्थानवाले सबसे कम है ऐसा कहा है। इसी प्रकार धवल की अन्य पुस्तकों में, महाबंध में व जयधवल पस्यों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि के सयमासंयम अर्थात् अणुव्रत का विधान है, निषेध नहीं है । -जं. सं. 16-10-58/VI/ स. म. जैन. सिरोज (१) स्त्रियों को क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता (२) शरीर का प्रभाव प्रात्म परिणामों पर पड़ता है शंका-सस्प्ररूपणा के सूत्र १६४-१६५ में जो मनुष्यनियों के तीनों सम्यक्त्व माने हैं सो किस मवेक्षा से ? समाधान-भाववेद की अपेक्षा मनुष्यनियों में उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक ये तीनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं। द्रव्य मनुष्यनियों में उपशम और क्षयोपशम ये दो सम्यक्त्व होते हैं, क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता। कहा भी है-"मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्यासकानामेव नापर्याप्सकानाम् । क्षायिकं पुनर्भाववेवेनैव ।" (सर्वार्थसिदि १७) अ-मनुष्यनियों के उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक तीनों सम्यक्त्व पर्याप्तअवस्था में होते हैं, अपर्याप्तअवस्था में सम्यक्त्व नहीं होता, किन्तु क्षायिकसम्यक्त्व भावमनुष्यनियों में ही होता है, द्रष्यमनुष्यनियों में नहीं होता। षट्खंडागम में भावमार्गणास्थानों का ग्रहण करना चाहिए, ऐसा श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है "इमानि" इत्यनेन भावमार्गणास्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निविश्यम्ते नार्थमार्गणस्थानानि । ( धवल पु.१ पृ० १३२ )। अर्थ---सूत्र दो के 'इमानि' पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिये, द्रव्य मार्गणामों को ग्रहण नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि षखंडागम सत्प्ररूपणा के सूत्र १६४ व १६५ में मनुष्यनियों के तीनोंसम्मग्दर्शन भावकी अपेक्षा से कहे गये हैं, द्रव्य की अपेक्षा से नहीं कहे । द्रव्यस्त्री शरीर के कारण मनुष्यनियों के क्षायिकसम्यक्त्व नहीं हो सकता, इससे यह सिद्ध है कि शरीर का प्रभाव प्रात्म-परिणामों पर पड़ता है। -जं. ग. 30-9-65/XI/ . सुखदेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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