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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३५५ समाधान — कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि अन्तर्मुहूर्त पश्चात् नियम से क्षायिकसम्यग्दृष्टि बनता है, क्योंकि मिथ्यात्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का क्षय होने के पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृति का अन्तिम स्थितिकांडक समाप्त होने पर कृतकृत्यवेदक होता है । "चरिमेट्ठिविखंडए गिट्टिवे कवकरणिओ त्ति मण्णवि । " ( धवल पु० ६ पृ० २६२ ) अर्थ — अन्तिम स्थितिकाण्डक के समाप्त होने पर 'कृतकृत्यवेदक' कहलाता है । - जै. ग. 5-12-66/ VIII / र. ला. जैन वेदक व उपशम सम्यक्त्व में अंतर शंका- क्षायोपशमिक मोर औपशमिक सम्यक्त्व में कौन ज्यादा श्रेष्ठ है और क्यों ? सप्रमाण बताइये । समाधान --- सम्यक्त्वप्रकृति के उदय के कारण क्षयोपशमसम्यक्त्व मलिन है और सम्यक्त्व प्रकृति के उदय के प्रभाव से उपशमसम्यक्त्व निर्मल है, किन्तु उपशमसम्यक्त्व का उत्कृष्टकाल भी अन्तर्मुहूर्त है और क्षयोपशमसम्यक्त्व का उत्कृष्टकाल ६६ सागर है । --- जै. सं. 5-7-56 / VI/ र. ला. जैन, केकड़ी सम्यक्त्व पर्याय तथा सम्यक्त्व प्रकृति में अन्तर शंका-सम्यक्त्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन दोनों में क्या अन्तर है ? समाधान- 'सम्यक्त्व' यह सम्यग्दर्शन का संक्षेप है । यह सम्यग्दर्शन आत्मा का गुण है, जिसका लक्षण प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की प्रगटता है । 'सम्यक्त्व - प्रकृति' यह दर्शनमोहनीय की प्रकृति है जो पुद्गलद्रव्य की अशुद्धपर्याय है, जो सम्यक्त्व में शिथिलता और अस्थिरताको कारणभूत है, किन्तु सम्यक्त्व का नाश नहीं करती अतः सम्यक्त्व की सहचारी होने से इसकी सम्यक्त्वप्रकृति संज्ञा है। आर्ष प्रमाण इस प्रकार है- "प्रशमसंवेगानुकम्मास्तिक्या भिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । सत्येवमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्याभावः स्यादिति चेतू ? सत्यमेतत् शुद्धनये समाश्रीयमाणे ।" ( धवल पु० १ पृ० १५१ ) Jain Education International अर्थ - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की प्रगटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं। प्रश्न होता है कि इस प्रकार सम्यक्त्व का लक्षरण मान लेने पर असंयतसम्यग्दृष्टि के चौथे गुणस्थान का प्रभाव हो जायगा, क्योंकि संयतसम्यग्डष्टि के प्रशम, संवेग और अनुकम्पा नहीं पाई जाती है । आचार्य कहते हैं कि प्रश्नकर्त्ता का कहना सत्य है, किन्तु सम्यक्त्व का यह लक्षण शुद्धनय के आश्रय से कहा गया है । इससे इतना स्पष्ट है कि शुद्धनय के श्राश्रय से सम्यग्दर्शन का जो लक्षण कहा गया है उसमें असंयत सम्यदृष्टि का कोई स्थान नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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