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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] नाङ्गहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्म-सन्ततिम् । न ही मंत्रोऽक्षरम्यूनो, निहन्ति विषवेदनाम् ॥२१॥ अर्थ - अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्ममरण की परम्परा का नाश नहीं कर सकता जैसा कि हीन अक्षरवाला मंत्र विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता । [ ३५३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार गाथा २२ की उत्थानिकारूप से संस्कृत टीका में कहा है- 'परिपूर्ण प्रङ्ग वाले सम्यग्दर्शन के होते हुए भी जब तक मूढभाव दूर न किया जायगा तब तक वह संसार का नाश नहीं कर सकता ।' २५ दोषरहित सम्यग्दर्शन संसारसंतति को छेदने में कारण है । मोक्षशास्त्र, अध्याय सात, सूत्र २३ में सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचारों का कथन है, इन पांच अतिचारों में २५ दोष प्रा जाते हैं । गृहस्थ व मुनि दोनों के सम्यक्त्व में ये पाँचअतिचार दर्शनमोह के उदय से लगते हैं । ( त० रा० वा० भ० ७, सूत्र २३ वार्तिक २ व ३ टीका ) | दर्शनमोहका उदय क्षयोपशमसम्यक्त्व में होता है । उपशम व क्षायिकसम्यक्त्व में दर्शनमोह का उदय नहीं होता है । अतः २५ दोष क्षयोपशमसम्यक्त्व में ही संभव हैं । गोम्मटसारजीवकाण्ड गाथा २५ में भी वेदक अर्थात् क्षयोपशमसम्यक्त्व के 'चल' 'मलिन' और 'अगाढ़' तीन दोष बताये हैं । किन्तु क्षयोपशमसम्यग्डष्टि के ये २५ दोष हर समय नहीं लगते । मोक्षमार्ग प्रकाशक अधिकार ९ में कहा है 'बहुरि सम्यक्त्व विषै पचीस मल कहे हैं । आठ शंकादिक, आठ मद, तीन मूढता, षट् अनायतन, सो ए सम्यक्त्वी के न होय । कदाचित् काहू के मल लागे सम्यक्त्व का नाश न होय है, तहाँ सम्यक्त्व मलिन ही होय है ।' यदि क्षयोपशमसम्यक्त्व में दर्शनमोह के उदय से ये पच्चीस दोष सदा लगते रहते तो क्षयोपशमसम्यक्त्व में तीर्थंकरप्रकृति का बंध न होता, क्योंकि तीर्थंकरप्रकृति का बंध दर्शनविशुद्धि भावना के द्वारा होता है । सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक में 'दर्शनविशुद्धि' का अर्थ 'पचीस दोषों से रहित व अष्टमंगसहित सम्यक्त्व' कहा है । गोम्मटसारकर्मsts गाथा ९३ में क्षयोपशमसम्यग्दष्टि के तीर्थंकर का बंध कहा है । इस सबका सारांश यह है कि पच्चीस दोष क्षयोपशसम्यक्त्व में दर्शनमोह की सम्यक्त्वप्रकृति के तीव्र उदय में कदाचित् लगते हैं जिनसे सम्यक्त्व मलिन हो गया है । Jain Education International वेदकसम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल शंका- वेवक सम्यक्त्व का काल १३२ सागर किस प्रकार सम्भव है ? समाधान - वेदकसम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ सागर है, १३२ सागर नहीं है । अन्तर्मुहूर्त कम ६६ सागर तक वेदकसम्यग्दष्टि रहकर एक अन्तर्मुहूर्त तक मिश्रगुणस्थान में प्राकर पुनः ६६ सागर के लिये वेदकसम्यग्दष्टि हो सकता है। धवल पु० ५ पृ० ६ पर कहा है -. 16-1-58 कोई एक तिथंच अथवा मनुष्य चौदहसागरोपम आयुस्थितिवाले लांतव- कापिष्ठ कल्पवासीदेवों में उत्पन्न हुआ । वहाँ एकसागरोपमकाल बिताकर दूसरेसागरोपम के आदिसमय में सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । तेरहसागरोपमकाल वहाँ पर रहकर सम्यक्त्व के साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया । वहाँ पर संयम या संयमासंयम पालनकर इस मनुष्य भवसम्बन्धी आयुसे कम बाईससागरोपम श्रायुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहीं से पुनः मनुष्य हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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