SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३५१ समाधान - श्री अकलंकदेव ने लिखा है कि सातप्रकृतियों के अत्यन्त अपगम हो जानेपर जो आत्मविशुद्धि होती है वह वीतरागसम्यक्त्व है । "सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽयगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्र मितरद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते ।" ( रा० वा० १।२।३१ ) अर्थात् - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान- माया - लोभ इन सातकर्मप्रकृतियों के आत्यन्तिक अपगम होजाने पर जो आत्मविशुद्धि होती है वह वीतरागसम्यक्त्व है । क्षयोपशमसम्यग्दर्शन में सम्यक्त्वप्रकृति का उदय रहता है इसलिये सातकर्मप्रकृतियों का आत्यन्तिक अपगम नहीं होता श्रतः क्षयोपशम-सम्यग्दृष्टि के वीतरागसम्यक्त्व नहीं होता है । सम्मूच्छिमों को वेदकसम्यक्त्व व पंचमगुणस्थान हो सकते हैं शंका- क्या सम्मूर्च्छनजीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है ? यदि हो सकता है तो वह कौनसा जीव है ? समाधान-मच्छ, कच्छप, मेंढकादि संमूच्छंन संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चों के वेदकसम्यग्दर्शन हो सकता है ।' कहा भी है - जै. ग. 1-7-65/VII / "एक्को तिरिक्खो मस्सो वा मिच्छाबिट्ठी अट्ठावीससंतकम्मिओ सष्णिपंचि वियतिरिक्खसमुच्छ्पिज्जतमंडूक कच्छ - मच्छवादीसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जतयदो १. विस्संतो २. विसुद्धो ३. संजमासंजमं पडवणो । एहितीहि अंतमुहुत्तेहि ऊणपुम्वकोडिकालं संजमा संजममखुपालितॄण मदो देवो जादो ।" (धवल १० ४ पृ० ३६६ ) मोहकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला एक तियंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि, संज्ञीपंचेन्द्रियसम्मूच्छिम पर्याप्त मंडूक, कच्छप आदि तियंचों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होता हुआ । १. विश्राम लेकर २. और विशुद्ध होकर ३. संयमासंयम को प्राप्त हुआ । इन तीन अन्तर्मुहूर्तों से कम पूर्वकोटि कालप्रमारण संयमासंयम को परिपालन करके मरा और देव हो गया । इसप्रकार सम्मूच्छिमतियंच के भी देशोन पूर्वकोटिकाल तक सम्यक्त्व तथा संयम सिद्ध हुआ । --- जै. ग. 10-2-72 / VII / इन्द्रसेन शंकादिक २५ दोष वेदकसम्यक्त्व में ही कदाचित् लगते हैं। शंका- क्षयोपशमसम्यक्त्व में शंकादि दोष लगते हैं या व्यवहारसम्यक्त्व में लगते हैं ? यदि व्यवहारसम्यक्त्व में लगते हैं तो व्यवहारसम्यक्त्व ही नहीं है। समाधान - सर्वप्रथम व्यवहारसम्यग्दर्शन व निश्चयसम्यग्दर्शन के स्वरूप का विचार किया जाता है । श्री कुन्दकुन्वाचार्य ने इसप्रकार कहा है १. सम्मूर्च्छन जीव प्रथमोपामसम्यक्त्व नहीं प्राप्त करते ( ध. ६ / ४२६ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only -सम्पादक www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy