SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३४५ सादिमिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व के पश्चात् क्षयोपशमसम्यक्त्व हो सकता है इसमें भी कोई बाधा नहीं है। -जं. ग. 7-12-67/VII/ र. ला. जैन प्रथमबार सम्यक्त्व लाभ के बाद मिथ्यात्व में जाना जरूरी नहीं शंका-ज्ञानपीठ से प्रकाशित उपासकाध्ययन पृ० ११२ पर भावार्थ में श्री पं.कैलाशचनाजी ने लिखा है कि-"अनादिमिथ्यादृष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्तकाल पूरा होने पर नियम से मिथ्यात्व में ही आता है।" क्या यह ठीक है ? समाधान-ऐसा लिखना ठीक नहीं है। अनादिमिथ्याष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करके मिथ्यात्व में जाता है, ऐसा नियम नहीं है, जैसा कि जयधबल के निम्न कथन से ज्ञात होगा। "अणादियमिच्छाइटुिणा सम्मत्ते समुप्पाइवे अंतोमुहुत्तकालं गुणसंकमो होदि, तो विज्मादे पदिदस्स णिरंतरमप्पयरसंकमो होदूण गच्छवि जावंतो मुहत्समेत्तुवसमसम्मत्तकालसेसो वेदगसम्मत्तकालो च देसूण छावटिसागरोवम्मेत्तो ति । तत्थंतो मुहुत्तसेसे वेदगसम्मत्तकाले खवणाए अब्भुट्टिदरसापुध्वकरणपढमसमए गुणसंकमपारंभेणाप्पयरसंकमस्स पज्जवसाणं होह।" (जयधवल पु० ९ पृ० १०८) . "अणाधिय मिच्छाइटिउवसमसम्मसमुप्पाइय गुणसंकमकाले वोलोणे विमाद संकमणप्पयरपारंभ कादूण वेदयसम्मत्तं परिवज्जिय अंतोमुहत्तूण छावद्विसागरोवमाणि परिभमिय दंसणमोहक्खवणाए अनुभुट्टिदो तस्सापुत्वकरणप्पडमसमए गुणसंकमपारंभेण अप्पयरसंकमस्साभावो जादो।" ( जयधवल पु० ९ पृ० ३१४ ) जयधवल के इन दोनों स्थलों पर बतलाया गया है कि अनादिमिथ्यादृष्टिजीव ने प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न किया, अन्तर्मुहूर्त काल प्रथमोपशमसम्यक्त्व में रहकर वेदकसम्यग्दृष्टि होगया, अन्तर्मुहूर्त कम छयासठसागर तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहकर दर्शनमोहनीय की क्षपणा के लिये उद्यत हुआ और अपूर्वकरण में गुणसंक्रमण प्रारम्भ हो गया। इसप्रकार अनादिमिथ्याष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्व प्राप्त करके मिथ्यात्व में न जाकर वेदकसम्यक्त्व उत्पन्न करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो गया। श्री गुणधराचार्य प्रणीत कषायपाहुड की निम्न गाथा के अर्थ में विपर्यास के कारण श्री पं० कैलाशचनजी लिख दिया कि 'अनादिमिथ्याष्टि प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करके नियम से मिथ्यात्व में जाता है। किन्त ऐसा नियम नहीं है। सम्मत्तपढ़मलंभस्सऽणंतरं पच्छदो य मिच्चत्त । लभस्स अपढमस्स दु भजियन्वो पच्छको होवि ॥१०॥ जयधवल टीका-सम्मत्तस्स जो पढमलंभो अणादियमिच्छाइदिविसको तस्सानंतरं पञ्चचो अणंतर पन्छिमावस्थाए मिच्छत्तमव होइ । तस्थ जाव पढमदिवि चरिमसमओ ति ताव मिच्छतो मोत्तूण पवारंतरासंभवारो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy