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________________ ३३६ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : गाणोवजोगे चेव उवजुत्तो होइ, तत्थ वंसणोवजोगस्सावीचारप्पयस्स पत्तिविरोहादो। तदो मदि-सुव-विमंगणाणाणभण्णदरो सागारोवजोगो चेव एदस्स होइ, णाणागारोवजोगोत्ति घेत्तव्वं । एदेणा जागरावस्था परिणदो चेव सम्मत्तुप्पत्ति पाओग्गो होदि, णाणो पि एवं पि जाणाविदं, णिदापरिणामस्स सम्मत्त प्पत्तिपाओग्गविसोहि परिणामेहि विरुद्धसहावत्तादो। एवं पटवगस्स सागारोवजोगत्तं णियामिय संपहि णिट्ठवगझिमवत्थासु सागाराणगार. णमण्णदरोवजोगेण भयणिज्जत्तपदुप्पायणटुमिदमाह ( गिट्ठवगो मज्झिमो य भजिवग्वो ) एत्थ पिट्ठवगो ति भणिदे दसणमोहोवसामणकरणस्स समाणगो घेत्तव्वो। सो वुण कम्हि उद्दे से होदि ति पुच्छिदे पढमट्टिदि सव्वं कमेण गालिय अंतरपवेसाहिमुहावस्थाए होइ। सो च सागरोवजुत्तो का अणागारोवजुत्तो वा होदि त्ति भजियव्वो, दोण्हमपणदरोवजोगपरिणामेण णिटुवगत्ते विरोहामावादो। एवं मज्झिमस्स वि वत्तव्वं । को मज्झिमोणाम ? पट्टवर्गाणटुवगपज्जायणमंतराल काले पयट्टमाणो मसिमो ति भण्णदे, तथ्य दोन्हं पि उवजोगाणं कमपरिणामस्स विरोहाभावादो भयणिज्जत्तमेदमवगंतव्वं ।" अर्थ-'सागार पटुवगो' ऐसा कहने पर दर्शनमोह की उपशमविधि का आरम्भ करनेवाला जीव अधः प्रवृत्तकरण के प्रथमसमय से लेकर अन्तर्मुहुर्तकाल तक प्रस्थापक कहलाता है, परन्तु वह जीव उस अवस्था में ज्ञानोपयोग में ही उपयुक्त होता है, क्योंकि उस अवस्था में अविचारस्वरूप दर्शनोपयोग की प्रवृत्तिका विरोध के इसलिये मतिश्रत और विभंगज्ञान में से कोई एक साकारोपयोग ही इसके होता है, अनाकार उपयोग नहीं होता ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। इस वचन द्वारा जागृतअवस्था से परिणत जीव ही सम्यक्त्वोत्पत्ति के योग्य होता है, अन्य नहीं, इस बात का ज्ञान करा दिया गया है, क्योंकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य विशुद्धरूप परिणामों से विरुद्ध स्वभाववाला है। इस प्रकार प्रस्थापक में साकारोपयोगपने का नियम करके अब निष्ठापकरूप और मध्यम ( बीच की) अवस्था में साकारउपयोग और अनाकारउपयोग में से अन्यतर उपयोग के साथ भजनीयपने का कथन करने के लिये यह वचन कहा है-(णिट्रवगो मज्झिमो य भजिदव्वो) इस वचन में निष्ठापक ऐसा कहने पर दर्शनमोह के उपशमकरण को समाप्त करने वाला जीव लेना चाहिए। परन्तु यह किस अवस्था में होता है ? ऐसा पूछने पर समस्त प्रथम स्थिति को क्रम से गलाकर अन्तरप्रवेश के अभिमुख अवस्था के होने पर होता है। और वह साकारोपयोग में उपयुक्त होता है या अनाकारोपयोग में उपयुक्त होता है. इसलिये भजनीय है. क्योंकि इन दोनों में से किसी एक परिणाम के साथ निष्ठापकपने का विरोध नहीं है। इसी प्रकार मध्यम अवस्थावाले के भी कहना चाहिए। प्रस्थापक और निष्ठापकरूप पर्यायों के अन्तरालकाल में प्रवर्तमान जीव मध्यम कहलाता है। इस अन्तरालकाल में दोनों ही उपयोगों ( ज्ञान और दर्शन ) का क्रम से परिणाम होने में विरोध का अभाव होने से भजनीयपना जानना चाहिए। प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रस्थापक के तो दर्शनावरणकर्म की चारप्रकृतियों का ही उदय रहता है, निद्रा आदि पाँचप्रकृतियों का उदय संभव नहीं है, किन्तु निष्ठापक व मध्यम अवस्थावाले के निद्रा या प्रचला इन दोनों प्रकृतियों में से किसी एक का उदय भी संभव है। -. ग. 11-4-74/....."| ज. ला. जेंन, भीण्डर प्रायोग्यलब्धि तक पहुंचे जीव के गृहीत मिथ्यात्व नहीं रहता शंका–प्रायोग्यलब्धि में क्या सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है ? क्या प्रायोग्यलब्धि गृहीतमिथ्यादृष्टि के भी हो जाती है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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