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________________ [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । नैसर्गिक सम्यक्त्व से पूर्व देशनालब्धि की आवश्यकता नहीं शंका-वर्तमान भव में जिसे निसर्गजसम्यग्दर्शन हो रहा है, उसको उसी मब में वेशमालब्धि की प्राप्ति होना क्या जरूरी है ? क्या पूर्वभव में देशनालन्धि के बिना भी निसर्गजसम्यग्दर्शन हो सकता है ? समाधान-जो सम्यग्दर्शन परोपदेश के बिना होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है। "यह बायोपदेशाहते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् ।" ( सर्वार्थसिद्धि ) १३ "यथा लोके हरिशार्दूलवृकभुजंगादयो निसर्गतः क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तन्त इत्युच्यन्ते। न चासावाकस्मिकी कर्म निमित्तत्वात् । अनाकस्मिक्यपि सती नैसगिकी भवति, परोपदेशाभावात् । तथेहाप्यपरोपदेशपूर्वके निसर्गाभिप्रायः।" ( राजवार्तिक १।३६ ) जो सम्यग्दर्शन परोपदेश के बिना उत्पन्न होता है वह नैसर्गिकसम्यग्दर्शन है । नैसर्गिकसम्यग्दर्शन में अपेक्षा नहीं रहती है। संसार में भी सिंह-शार्दूल-बिच्छू-सर्प आदि के स्वभाव से क्रूरता, शूरता आदि देखी जाती है । पदापि उनमें ये सब कर्मोदयरूप निसर्ग से होने के कारण सर्वथा आकस्मिक नहीं है तथापि परोपदेश के प्रभाव के कारण वे नैसगिक हैं। इसी प्रकार परोपदेश निरपेक्ष जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है। जिस प्रकार सिंह आदि की नैसर्गिक क्रूरता आदि में कर्मोदय निमित्त पड़ता है, उसी प्रकार नैसर्गिक सम्यग्दर्शन में जिनबिम्बदर्शन आदि बाह्य निमित्त होते हैं। कहा भी है गइसग्गियमवि पढमसम्मत्तं तच्च? उत्तं, तं हि एत्थेव दृढव्वं, जाइस्मरण जिबिबदसरणेहि विणा उपज्जमाणणइसग्गिय पढमसम्मत्तस्स भसंभवादो। (धवल पु० ६ पृ० ४३० ) तस्वार्थसूत्र में नैसर्गिकसम्यक्त्व का भी कथन किया गया है, उसका भी पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न हुए समय में ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जातिस्मरण या जिनविम्बदर्शन के बिना नैसर्गिकसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता। भीपूज्यपाद, अकलंकदेव आदि आचार्यों का इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी श्री केशववर्णी ने लब्धिसार गाथा ६ की टीका में निम्नप्रकार से लिखा है उपदेशकरहितेषु नारकाविभवेषु पूर्वभवत्र तधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति इति सूच्यते । श्री पण्डितप्रवर टोडरमलजी ने इसका अर्थ किया है-नारक आदि विर्षे जहां उपदेश देने वाला नहीं, तहाँ पूर्व भव विर्षे धारघा हुआ तत्त्वार्थ के संस्कारबल तें सम्यग्दर्शन की प्राप्ति जाननी। यद्यपि लब्धिसार गाथा ६ में निसर्गजसम्यग्दर्शन का प्रकरण नहीं है, मात्र देशनालब्धि के प्रकरण में यह लिखा गया है तथापि कोई-कोई इस टीका के आधार पर नैसर्गिकसम्यक्त्व में भी पूर्वभव की देशना को कारण मानते हैं जो आर्ष ग्रन्थों के अनुकूल नहीं है। ऐसा मानने से जिन बिम्बदर्शन की महिमा का लोप हो जाता है। जिन बिम्ब के दर्शन से मिथ्यात्वकर्म के खण्ड-खण्ड हो जाते हैं । धवल पु. ६ पृष्ठ ४२७-२८ पर कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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