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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] श्रायुबन्ध और तद्योग्य लेश्या शंका-आयुबन्ध कापोतलेश्या के जघन्य से लेकर तेजोलेश्या के उत्कृष्ट तक ८ अंशों में बताया, दूसरी लेश्याओं में नहीं, तो जहाँ पर ये लेश्यायें सर्वथा ही नहीं हैं, नरकों या स्वर्गों में वहाँ पर आयुबन्ध कैसे होता है ? समाधान- गो० जी० बड़ी टीका पत्र ९१३ पर जो कापोतलेश्या के उत्कृष्ट अंश के आगे और तेजोलेश्या के उत्कृष्ट अंश के पहले जो आठ अंश आयु के बन्ध के कारण कहे और वहीं पर जो नक्शा दिया है उसमें छहों लेश्याओं में चारों आयु का बन्ध दिखाया है। इन दोनों कथनों की संगति महाधवल व धवल से नहीं बैठती है । महाबन्ध पुस्तक २ पत्र २७८ से २८१ व षट्खंडागम पुस्तक ८ पत्र ३२० - ३५८ के देखने से ज्ञात होता है कि तीनों अशुभ लेश्याओं में चारों श्रायु का बन्ध होता है और पीत व पत्र में नरकायु को छोड़कर शेष तीन आयु का और शुक्ल में मनुष्य व देव आयु का ही बन्ध होता है । [ ३१९ - पत्राचार 24-29/5/54/ ब. प्र. स., पटना छहों लेश्याओं में श्रायुबन्ध शंका - गोम्मटसार जीवकांड गाथा २९० से २९५ तक पृष्ठ ६१८ में लेश्या के २६ अंशों में से कापोत लेश्या के जघन्यअंश से लेकर कापोतलेश्या के उत्कृष्टअंश तक के ८ मध्यम भेदों में आयुबन्ध होना बताया है तो क्या बाकी की चार लेश्याओं में आयु का बन्ध नहीं होता ? समाधान — गोम्मटसार जीवकांड गाथा २९० से २९५ तक का यह श्राशय नहीं है कि कापोत और पीतया में ही आयु का बन्ध होता है, किन्तु इन गाथाओं का स्पष्ट यह प्राशय है कि छहों लेश्यानों में श्रायु का बन्ध होता है, तथापि कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट अंशों और पीत, पद्म, शुक्ललेश्याओं के उत्कृष्टभ्रंशों में से कुछ ऐसे हैं जिनमें आयु का बन्ध नहीं होता । गोम्मटसार जीवकांड बड़ी टीका पृ० ६३९ पर जो यन्त्र दिया गया है उससे यह स्पष्ट है कि छहों लेश्याओं में प्रयुका बन्ध हो सकता है ध० पु० ८ पृ० ३२९ से पू० ३५३ तक लेश्यामार्गणा के कथन में सब ही लेश्यायों में आयुबन्ध कहा है तथा महाबन्ध पु० २ ० २७८ २८१ पर छहों लेश्याओं आयु के बन्ध का निर्देश है । में Jain Education International - जै. ग. 21-3-63 / IX / ब. प्र. स. पटना लेश्या व कषाय में अन्तर शंका- लेश्या व कषाय में क्या अन्तर है ? समाधान - कषाय और लेश्या के लक्षणों में अन्तर है । इन दोनों का लक्षण निम्न प्रकार है "सुखदुःखबहु सस्यं कर्मक्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः ।" ( धवल पु० १ पृ० १४१ ) सुह- बुक्ख-सुबहु सस्सं कम्मक्खेसं कसेदि जीवस्स । संसारदूरमेरं तेण कसायो त्तिणं वेति ॥ २८२ ॥ ( गो. जी. ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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