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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] यदि केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों में हानि-वृद्धि मान ली जाय तो उनकी संख्या उत्कृष्टअनन्तानन्त .. नहीं रहेगी, क्योंकि उत्कृष्ट संख्या में हानि-वृद्धि संभव नहीं है और उत्कृष्ट संख्या न रहने से त्रिलोकसार गाया ५१ से विरोध आ जायगा । अतः केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों की हानि-वृद्धि द्वारा स्वभावपरिणमन मानना नितांत भूल है। -जें. ग. 11-11-71/XII/ अ. कु. जैन ज्ञयों के परिणमन की अपेक्षा केवलज्ञान में भी परिणमन होता है शंका-यदि केवलज्ञान में अविभागप्रतिच्छेदों को हानि वृद्धि के कारण परिणमन नहीं है तो किस प्रकार परिणमन है ? समाधान-ज्ञान ज्ञेयों को जानता है अर्थात् ज्ञान की ज्ञेयों को जाननेरूप पर्याय होती है। प्रतिसमय जैसा-जैसा ज्ञेयों में परिणमन ( उत्पाद-व्यय ) होता रहता है, जानने की अपेक्षा वैसा-वैसा परिणमन ज्ञान में भी होता रहता है। यदि ज्ञान में तदनुकूल परिवर्तन न हो तो ज्ञान ज्ञेयों को जान ही नहीं सकता। आगम इस प्रकार है "शेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिणमति ।" (प्र० सा० गा० १८ टीका ) "येन येनोत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण प्रतिक्षणं ज्ञेयपदार्थाः परिणमन्ति तत्परिच्छित्त्याकारणानीहितवृत्त्या सिद्धज्ञानमपि परिणमति ।" ( वृ० द्र० सं० गाथा १४ टीका) "प्रतिक्षणं विवर्तमानानर्थानपरिणामि केवलं कथं परिछिनत्तीति चेन्न, ज्ञेयसमविपरिवर्तिनः केवलस्य तवविरोधात् । ज्ञेयपरतन्त्रतया विपरिवर्तमानस्य केवलस्य कथं पुनर्नवोत्पत्तिरिति चेन्न, केवलोपयोगसामान्यापेक्षया तस्योत्पत्तरभावात् । विशेषापेक्षया च नेन्द्रियालोक मनोभ्यस्तदुत्पत्तिविगतावरणस्य तद्विरोधात् ।" (ध० पु० १ पृ० १९८) "ण च णाणविसेसद्वारेण उप्पज्जमाणस्स केवलणाणंसस्स केवलणाणत्तं फिदि, पमेयवसेण परियत्तमाणसिद्धजावणाणंसाणं पि केवलणाणत्ताभावप्पसंगादो।" (ज० ध० पु. १ पृ० ५०-५१) अर्थ-उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से ज्ञेयपदार्थ प्रतिक्षण परिणमन करते हैं उसी प्रकार केवलज्ञान में भी जानने की अपेक्षा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणमन होता है। यहाँ पर शंका है कि अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक समय में परिवर्तनशील पदार्थों को कैसे जानता है ? ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञेयपदार्थों को जानने के लिये तदनुकूल परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान के ऐसा परिवर्तन मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। पुनः शंका है कि ज्ञेय की परतन्त्रता से परिवर्तन करने वाले केवलज्ञान की फिर से उत्पत्ति क्यों न मानी जाय? केवलज्ञान की फिर से उत्पत्ति नहीं मानी जाती, क्योंकि केवलज्ञानरूप उपयोग सामान्य की अपेक्षा केवलज्ञान की पुनः उत्पत्ति नहीं होती है। विशेष की अपेक्षा केवलज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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