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________________ ३०२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : बवपन्जाया (प्रवचनसार ) अर्थात् वास्तव में ज्ञानरूप से परिणमित होते हुए केवलीभगवान के सर्व द्रव्य-पर्याय प्रत्यक्ष हैं। -जं. सं. 26-9-57/............... केवलज्ञान, दिव्यध्वनि में निरूपण, द्वादशांग; ये यथाक्रम अनन्तगुणे हीन हैं शंका-केवलज्ञानी ने जो जाना है, क्या वह सब दिव्यध्वनि में नहीं कहा गया है ? और जितना दिव्यध्वनि में निरूपण किया गया है, क्या वह सब द्वादशांग में नहीं आ गया है ? जितना केवलीभगवान ने जाना है वह समस्त हमको उपलब्ध है, ऐसा मानने में क्या आपत्ति है ? समाधान-इस प्रश्न का उत्तर श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीआचार्य के अनुसार इस प्रकार है पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दू अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुणं अणंतभागो सदणिवद्धो ॥३ ।(गो. जी ) जो पदार्थ मात्र केवलज्ञान के द्वारा जाने जाते हैं, किन्तु जिनका वचनों के द्वारा निरूपण नहीं किया जा सकता. ऐसे पदार्थ अनन्तानन्त हैं। उनके अनन्तवेंभाग में वे पदार्थ हैं जिनका निरूपण किया जा सकता है। उनका भी अनन्तवांभाग द्वादशांगश्रुत में निबद्ध है । जितना द्वादशांग में निबद्ध है वह भी पूर्ण हमको उपलब्ध नहीं है। शंका-केवलज्ञानी क्या जानते हैं ? किसप्रकार जानते हैं ? समाधान—केवलज्ञानी समस्त ज्ञेयों को जानते हैं, क्योंकि प्रतिबन्धक कर्मों का अभाव हो गया है। कोई भी ज्ञेय ऐसा नहीं है, जिसको केवलज्ञानी न जानते हों। ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । बाह्मऽग्निर्वाहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥ ( अष्टसहस्री पृ० ५० ) प्रतिबन्धक के नहीं रहने पर ज्ञाता ज्ञेय के विषय में अज्ञ कैसे रह सकता है अर्थात् ज्ञानस्वभावी आत्मा ज्ञेय पदार्थों को अवश्य जानेगा। केवलज्ञान आत्मा और अर्थ के अतिरिक्त किसी इन्द्रिय प्रकाश मादि की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता है, इसलिये केवलज्ञान असहाय है। "आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम् ।" ( जयधवल पु० १ पृ० २३ ) केवलज्ञान इन्द्रिय व प्रकाशादि को सहायता के बिना जानता है । वह तो प्रत्यक्ष जानता है अर्थात् समस्त ज्ञेय उसके ज्ञान में प्रत्यक्ष हैं। जो ज्ञेय जिस रूप से है उसको उसी रूप से जानता है, अन्यथा नहीं जानता है, क्योंकि अन्यथा जानने का कोई कारण नहीं रहा। में.ग. 11-11-71/XII/ अ. कु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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