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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २८७ समाधान-उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात सर्वावधिज्ञान का विषय है, किन्तु जघन्य अनन्त अवधिज्ञान का विषय नहीं है। -पलाचार 17-2-80 /ज. ला. जैन, भीण्डर चिह्नों से उत्पन्न अवधिज्ञान का Reaction सर्वत्र होता है शंका-अवधिज्ञान संपूर्ण आत्मप्रदेशों से नहीं जानता किन्तु समस्त चिह्नों में स्थित आत्मप्रदेशों से जानता है । अनुभव समस्त आत्मप्रदेशों में होता है । जब गुणप्रत्ययअवधिज्ञान सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों से नहीं जानता तो उसका अनुभव सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में कैसे हो सकता है। समाधान-गुणप्रत्ययअवधिज्ञान चिह्नों में स्थित आत्मप्रदेशों के द्वारा जानता हुआ भी उसका अनुभव समस्त प्रात्मप्रदेशों में होता है। जिसप्रकार चक्षुइन्द्रिय में अंतरंग निवृत्तिरूप से स्थित आत्मप्रदेशों के द्वारा रूप का ज्ञान होता है किन्तु उस रूप का अनुभव समस्त आत्मप्रदेशों में होता है, अन्यथा उस रूप के देखने के कारण उत्पन्न हुआ हर्ष-विषाद संपूर्ण आत्मप्रदेशों में न होता । चक्षुइन्द्रिय में स्थित आत्मप्रदेशों के द्वारा उत्पन्न हुए ज्ञान का Reaction संपूर्ण आत्मप्रदेशों द्वारा अनुभव में आता है, उसी प्रकार समस्त चिह्नों में स्थित आत्मप्रदेशों के द्वारा उत्पन्न हुए अवधिज्ञान का भी Reaction संपूर्ण आत्मप्रदेशों में होता है, क्योंकि प्रात्मा एक अखंडद्रव्य है । अखंडद्रव्य के एकअंश में तो अनुभव हो और दूसरे अंश में अनुभव न हो, ऐसा नहीं हो सकता। –ण. सं. 24-7-58/V/ जि. कु. जैन, पानीपत अवधिज्ञान का अनुभव सर्व प्रात्मप्रदेशों में होता है शंका-यदि कर्मों का क्षयोपशम सर्व आत्मप्रदेशों में समान है तो सर्वप्रदेशों से जानने में क्या बाधा आती है। यदि फिर भी बाधा मानी जाय तो उन प्रदेशों में कर्मों के क्षयोपशम का क्या फल हआ? वहां तो उदयवत आत्मशक्ति प्रतिहत ही रही। इससे क्षयोपशम तथा आत्मशक्ति के आविर्भाव में व्याप्ति खंडित हो जाती है। ऐसा होने पर उदय तथा आत्मशक्ति के तिरोभाव में व्याप्ति को भी अनिश्चितता का प्रसंग आ जाता है। - समाधान-सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में क्षयोपशम होते हुए भी सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में करणपने का प्रभाव होने से सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों से अवधिज्ञान नहीं हो पाता। करणपना उन्हीं आत्मप्रदेशों में होता है जिन प्रदेशों का संबंध शरीर के उन अवयवों से हो रहा है जहाँ शरीर पर चिह्न बने हुए हैं । यदि सम्पूर्ण प्रात्मप्रदेशों में क्षयोपशम स्वीकार न किया जावे और प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में ही अवधिज्ञान का क्षयोपशम स्वीकार किया जावे तो भ्रमण करते हुए प्रात्मप्रदेशों के चिह्नों के स्थान पर से हट जाने के काल और उस स्थान पर अन्य प्रात्मप्रदेश या जाने से ( जिनमें अवधिज्ञान का क्षयोपशम नहीं माना गया ) अवधिज्ञान से जानना असंभव हो जावेगा, क्योंकि जिन आत्मप्रदेशों में अवधिज्ञान का क्षयोपशम था वे तो भ्रमण के करण चिह्नोंवाले स्थान से हट गये इसलिये उनमें क्षयोपशम रहते हुए भी करण का अभाव होने से अवधिज्ञान नहीं हो सकेगा और चिह्नों से जिन आत्मप्रदेशों का भ्रमण द्वारा संबंध हुआ है उनमें क्षयोपशम नहीं अतः करण चिह्न होते हुए भी वे जान नहीं पायेंगे। अतः अवधिज्ञान का क्षयोपशम सम्पूर्ण प्रात्मप्रदेशों में होता है और वे क्रम से अपना कार्य भी करते हैं । अथवा सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में क्षयोपशम होने के कारण सम्पूर्ण आत्मा में अवधिज्ञान का अनुभव होता है । __ -जं. सं. 26-6-58/V/ जि. कु. जैन, पानीपत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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