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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २८५ श्री श्रुतसागरआचार्य ने तत्त्वार्थवृत्ति में निम्न प्रकार लिखा है "अवाग्धानं अवधिः । अधस्ताबहुतर विषयग्रहणादवधिरुच्यते । देवाः खलु भवधिज्ञानेन सप्तमनरक. पर्यन्तं पश्यन्ति, उपरिस्तोकं पश्यन्ति, निजविमानध्वजदण्डपर्यन्तमित्यर्थः।" यहाँ पर यह कहा गया है कि नीचे का विषय होने से अवधिज्ञान संज्ञा है। अवधिज्ञानियों में अधिकतर संख्या देवों की है। अतः देवों की अपेक्षा से नीचे के विषय को स्पष्ट करते हए कहा है कि देव नीचे तो सातवें नरक तक जानते हैं, किन्तु ऊपर की नाप अपने विमान के ध्वजदण्ड तक जानने से स्तोक जानते हैं। अतः क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान का नीचे की ओर का विषय है। श्री वीरसेनआचार्य ने द्रव्य की अपेक्षा 'नीचे के विषय' को स्पष्ट किया है और श्री श्रुतसागरआचार्य ने क्षेत्र की अपेक्षा 'नीचे के विषय' को स्पष्ट किया है। विवक्षां भेद से दोनों कथनों में भेद है। -जं. ग. 11-3-76/......../ र. ला. जैन, मेरठ तीर्थकर की माता को अवधिज्ञान होता है या नहीं ? शंका-तीर्थकर के माता-पिता दोनों ही अवधिज्ञानी होते हैं या पिता ही अवधिज्ञानी होता है ? समाधान-तीर्थकर के पिता के अवधिज्ञानी होने का कथन तो पार्षग्रन्थ में पाया जाता है किन्तु माता के अवधिज्ञानी होने का कथन देखने में नहीं आया है। अथासाववधिज्ञान विवुद्धस्वप्नफलः । प्रोवाच तत्फलं देव्यै लसद्दशनदीधितिः ॥१२/१५४ महापुराण इस श्लोक में यह कहा गया है कि अवधिज्ञान के द्वारा स्वप्नों का उत्तम फल जानकर महाराज नाभिराय मरुदेवी के लिये स्वप्नों का फल कहने लगे । -जे. ग. 10-12-70/VI/ र. ला. जैन, मेरठ देवों को अवधि द्वारा तिथियों का ज्ञान शंका-स्वर्ग में ज्योतिष देवों का संचार नहीं है। वहाँ पर दिन रात ऋतु अयन आदि का भेद नहीं है। फिर देवों को अष्टाह्निका पर्व के दिवस का कैसे ज्ञान हो जाता है जिससे वे नन्दीश्वरद्वीप में जाकर पूजन करने लगते हैं ? समाधान-तलोक अर्थात् मनुष्य लोक में ही सूर्य आदिकों के गमन के कारण दिन, रात आदि काल का विभाग होता है। "ज्योतिष्काः सूर्याचंद्रमसौप हनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च । मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोक । तस्कृतः कालविभागः।" [ तत्त्वार्थसूत्र ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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