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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २८३ अर्थ-पहली प्रथिवी में नारकियों के अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र चारकोशप्रमाण है और उत्कृष्टकाल समयकम मुहूर्त है। नारकी मरकर पुन: नरक में उत्पन्न नहीं हो सकता, मध्यलोक में मनुष्य या तिथंच होगा अर्थात् नारकी के आगामीभव का क्षेत्र चारकोस से बाहर के क्षेत्र में होगा, जो उसके अवधिज्ञान के क्षेत्र में नहीं है अतः नारकी आगामीभव को नहीं जान सकता। देव मरकर मध्यलोक में उत्पन्न होते हैं । देव मध्यलोक में सर्वत्र जा सकते हैं, समवसरण में भी जा सकते हैं। उनके अवधिज्ञान का क्षेत्र व काल भी बहत अधिक है अतः वे अपने आगामीभव को जान सकते हैं। जिस प्रकार खदिरसार भील का आगामीभव अनियत था उसीप्रकार जिसका आगामीभव अनियत है वह अपने आगामीभव को नियतरूप से नहीं जान सकता है। यदि नियतरूप से जानेगा तो वह गलत हो सकता है। जिसप्रकार यक्षिणी ने खदिरसार भील के आगामी अनियत भव को नियतरूप से ( खदिरसार भील मरकर मेरा जान लिया था उसका अवधिज्ञान द्वारा उस प्रकार जानना गलत सिद्ध हुआ, क्योंकि भील मरकर यक्षिणी का पति नहीं हुआ, किन्तु प्रथम स्वर्ग का देव हुआ।' –णे. ग, 30-11-67/VIII/ के. ला. देवों द्वारा दूसरों के मुख से प्रागामी भव बतलाना शंका-क्या सम्यग्दृष्टिदेव दूसरे की देह में आकर अपने अवधिज्ञान द्वारा दूसरे के आगामीभव बतला सकता है ? अगर बतला सकता है तब कौनसी अवधि हई ? समाधान–देव तो स्वयं इस अपवित्र मनुष्यशरीर में प्रवेश नहीं करता, किन्तु विक्रिया से अपने अवधिज्ञान द्वारा दूसरे के मुख से किसी अन्य के आगामी भव बतला सकता है। यहाँ पर भी मेसमेरेजम से मेसमेरेजम करने वाला अपने ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को दूसरे के मुख से बतला देता है । उस सम्यग्दष्टिदेव के भवप्रत्ययदेशावधिज्ञान होता है। -जें. ग. 21-11-63/IX/ प्र. प. ला. पंचमकाल में अवधिज्ञानी का सद्भाव शंका-क्या पांचवें काल में अवधिज्ञानधारी मुनि हो सकता है ? यदि हो सकता है तो किस प्रमाण से ? समाधान-पांचवेंकाल के अंत तक अवधिज्ञानीमुनि होंगे। तिलोयपण्णत्ती महाअधिकार ४, गाथा १५२८ में इस प्रकार कहा है "कादूणमंतरायं गच्छदि पावेदि ओहिणाणं पि । अक्कारिय अग्गिलयं पंगुसिरी विरवि सम्वसिरी। अर्थ-वे मुनि अंतराय करके वापिस चले जाते हैं तथा अवधिज्ञान को भी प्राप्त करते हैं। उस समय वे मुनीन्द्र, अग्निल श्रावक, पंगुश्री श्राविका और सर्वश्री आर्यिका को बुलाते हैं । "भासइ पसण्णहिदओ दुस्समकालस्स जावमवसाणं । तुम्हम्ह तिविणमाऊ एसो अवसाणकक्को हु ॥ १५२९ ॥ १. 30 पु० ७४13501पृष्ठ ६१७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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