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________________ २७८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार करनेरूप होता है । यदि पर्यायज्ञानावरणकर्म का फल पर्यायज्ञान को आवरण करने में हो जाय तो ज्ञानोपयोग का अभाव होने से जीव का भी अभाव हो जाय । सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तकजीव के उत्पन्न होने के प्रथमसमय में सबसे जघन्यज्ञान होता है, इसी को पर्यायज्ञान कहते हैं । इतना ज्ञान सदैव निरावरण तथा प्रकाशमान रहता है । सूक्ष्मनिगोदियालब्ध्यपर्याप्तकजीव के छहहजारबारहभव संभव हैं । उनमें भ्रमण करके अन्त के अपर्याप्तशरीर को तीन मोड़ों के द्वारा ग्रहण करनेवाले जीवके प्रथममोड़े के समय में अर्थात् उत्पन्न होने के प्रथमसमय में स्पर्शनइंद्रियजन्य मतिज्ञान पूर्वक लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान होता है । "आत्मनोऽयं ग्रहणशक्तिर्लब्धिः भावेन्द्रियम्, तद्र पमक्षरं लब्ध्यक्षरम् ।" ( राजवार्तिक पृ० ६५ ) आत्मा की प्रर्थ ग्रहण करने की शक्ति को लब्धि अथवा भावेन्द्रिय कहते हैं । उस शक्तिका नाश न हो सो लब्ध्यक्षर है । श्रर्थात् इतना ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है । "यच्च लब्ध्यपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदजीवे नित्योद्घाटं निरावरणं ज्ञानं श्रूयते तदपि सूक्ष्मनिगोदसर्व जघन्यक्षयोपशमापेक्षया निरावरणं, न च सर्वथा । कस्मादिति चेत् ? तदावरले जीवाभावः प्राप्नोति ।" ( द्रव्यसंग्रह पृ० ९६ ) अर्थ - लब्धि पर्याप्तक सूक्ष्मनिगोदियाजीव में जो नित्यउद्घाटित तथा प्रावरणरहित ज्ञान है, वह भी सूक्ष्मनिगोद में ज्ञानावरणकर्म का सर्वजघन्यक्षयोपशम की अपेक्षा से श्रावरणरहित है, सर्वथा आवरणरहित नहीं है । यदि उस जघन्यज्ञान का भी आवरण हो जावे तो जीव का ही अभाव हो जायगा । "वस्तुत उपरितनक्षायोपशमिकज्ञानापेक्षया केवलज्ञानापेक्षया च तदपि सावरणं, संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावाच्च क्षायोपशमिकमेव । यदि पुनर्लोचनपटलस्यैकदेश निरावरणवत्केवलज्ञानांशरूपं भवति तहि तेनैकदेशेनापि लोकालोकप्रत्यक्षतां प्राप्नोति, न च तथा दृश्यते । किन्तु प्रचुर मेघप्रच्छादिता षित्य विस्वव निविडलोचनपटलवद्वास्तोकं प्रकाशयतीत्यर्थः । " ( द्र. सं. गाथा ३४ टीका, पृ. ९६ ) अर्थ - वास्तव में तो ऊपरवर्त्ती क्षायोपशमिकज्ञान की अपेक्षा और केवलज्ञान की अपेक्षा वह लब्ध्यक्षरज्ञान भी आवरणसहित है, क्योंकि संसारी जीवों के क्षायिकज्ञान का प्रभाव है, इसलिये निगोदिया का वह लब्ध्यक्षरज्ञान क्षायोपशमिक ही है । यदि नेत्रपटल के एक देश में निरावरण के समान वह लब्ध्यक्षरज्ञान निरावरण क्षायिककेवलज्ञान का अंशरूप हो अर्थात् श्रात्मप्रदेशों में से एक अंशप्रदेश में भी केवलज्ञान होतो उस एकदेश से भी लोकालोकप्रत्यक्ष हो जाय, परन्तु ऐसा देखा नहीं जाता, किन्तु अधिक बादलों से आच्छादित सूर्य-बिम्ब के समान या निविड़ नेत्रपटल के समान, निगोदिया का वह लब्ध्यक्षरज्ञान सबसे कम जानता है, यह तात्पर्य है । "खरणाभावा अक्खरं केवलणाणं । तस्स अनंतिमभागो पज्जाओ णाम मदिणाणं । तं च केवलणाणं व निरावरणमक्खरं च । एदम्हादो सुहुमणिगोदलद्धिअक्खरादो जमुत्पज्जइ सुदणाणं तं पि पज्जाओ उच्चादि, कज्जे कारणोवारादो ।" ( धवल पु० ६ पृ० २१-२२ ) अर्थ-क्षरण अर्थात् नाश के प्रभाव होने से केवलज्ञान प्रक्षर कहलाता है । उसका अनन्तवाँ भाग पर्यायनाम का मतिज्ञान है । वह पर्यायनाम का मतिज्ञान तथा केवलज्ञान निरावरण और अविनाशी है। इस सूक्ष्मनिगोद के लब्धि-अक्षर से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह भी कार्य में काररण के उपचार से पर्याय कहलाता है । "सुहुमणिगोदलद्धि अप्पजत्तयस्स जं जहण्णयं जाणं तं लद्विअक्खरं णाम । कधं तस्स अक्खरसण्णा ? खरपेण विणा एगसरूवेण अवट्टाणादो केवलणाणमक्खरं, तत्थवड्डि-हाणीमभावादो । दव्वट्ठियणए सुहुमणिगोदणाणं तं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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