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________________ २७० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : टीका-महति कुन्डे स्थितं बह्वपि पयो यथा विषकणिका दूषयति । एवमश्रद्धानकणिका मलिनयत्यात्मनमिति भावः॥ टोकार्थ-बड़े पात्र में रक्खे हुए बहुत दूध को भी छोटी सी विषकणिका बिगाड़ती है। इसी तरह आर्ष वाक्यों की अश्रद्धा का छोटा सा अंश भी आत्मा को मलिन ( मिथ्यादृष्टि ) करता है ऐसा समझना चाहिये। -णे. ग. 19-10-67/VIII/ कपू. दे. वेद परिवर्तन शंका-क्या भाववेद परिवर्तन होता रहता है या जन्मसमय जो भाववेव हो वही बना रहता है ? समाधान-जन्मसमय से मरण पर्यन्त एक ही भाववेद रहता है, परिवर्तन नहीं होता। ध० पु०१ पृ० ३४६ सूत्र १० की टीका में कहा है-"जैसे विवक्षित कषाय केवल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त रहती है वैसे सभी वेद केवल एक अन्तर्मुहूर्त पर्यंत नहीं रहते हैं क्योंकि जन्म से लेकर मरण तक भी किसी एक वेद का उदय पाया जाता है। - जे. ग. 1-2-62/VI/ ध. ला. सेठी, खुरई विवक्षित गति से गत्यन्तर में जाने पर वेद परिवर्तन शंका-यहां से स्त्री पर्याय से जो जीव विवेह क्षेत्र जाते हैं सो वे वहां स्त्री ही होते हैं या पुरुष भी हो सकते हैं ? समाधान-एक पर्याय ( भव ) में एक भाववेद जन्म से मरण पर्यन्त रहता है ऐसा तो आगम में कहा है, किन्तु मरण के पश्चात् भी वेद परिवर्तन नहीं होता, ऐसा नियम देखने में नहीं आया। वह पागम इस प्रकार है-"तीनों वेदों की प्रवृत्ति क्रम से होती है युगपत् नहीं, क्योंकि वेद पर्याय है। जैसे विवक्षितकषाय केवल अन्तमहतं पर्यन्त रहती है, वैसे सभी वेद केवल एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त नहीं रहते हैं, क्योंकि जन्म से लेकर मरण तक किसी भी एक वेद का उदय पाया जाता है ।" ( धवल पु० १ पृ० ३४६ ) । धवल पु० ७ के कथन से भी सिद्ध होता है कि मरण के पश्चात् वेद परिवर्तन हो सकता है । अतः यहाँ से स्त्री पर्याय से जो जीव विदेहक्षेत्र जाते हैं सो वे वहां स्त्री ही हों, ऐसा नियम नहीं, पुरुष भी हो सकते हैं। -जे. ग.23-4-64/IX/म. मा. असंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंच के तीनों वेद शंका-पंचाध्यायी दूसरा अध्याय श्लोक १०८८ में असंज्ञीपंचेन्द्रियतियंचों के भाव व द्रव्य से एक न सक वेद कहा है अन्य वेद का निषेध किया है, किन्तु असंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यंचों के अण्डे आदि देखे जाते हैं सो कैसे? समाधान-असंज्ञीपंचेन्द्रियतियंचों के तीनों वेद होते हैं। श्री पुष्पदन्त आचार्य ने षट्खंडागम सत्प्ररूपणा सूत्र १०७ में कहा है कि "तियंच असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयतगुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं।" द्वादशांग के अङ्ग के एक देश के ज्ञाता श्री धरसेनाचार्य ने यह सूत्र श्री पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य को पढाया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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