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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २६७ समाधान - तैजसवर्गणायें तो योग से आती हैं । तैजसशरीर नामकर्मोदय के कारण उन तैजसवर्गणान से तैजसशरीर की रचना हो जाती है। श्री वीरसेन आचार्य ने कहा है ww "जस्स कम्मस्स उदएण तेजइयवग्गणवखन्धा निस्सरणाणिस्सरणपसत्यापसत्यप्पयत्तेयासरीरसरूवेण परिणमंति तं तेयासरीरं णाम ।" धवल पु० ६ पृ० ६९ । जिस कर्मोदय से तेजसवर्गरणा के स्कन्ध निस्सरण प्रनिस्सरणात्मक और प्रशस्त - अप्रशस्तात्मक तैजसशरीर के स्वरूप से परिणत होते हैं, वह तैजसशरीर नामकर्म है । ग्रात्मप्रदेशों का परिस्पन्द भी योग के कारण होता है । धवल पु० १२ पृ० ३६५ । तेजसशरीर नामकर्म का उदय आत्मा की योगशक्ति में कारण नहीं होता है । अतः तेजसकाययोग नहीं कहा गया है। श्री अमितगति आचार्य ने पंचसंग्रह में कहा भी है तेजसेन शरीरेण बध्यते न न जीर्यते । न चोपभुज्यते किंचिद्यतो योगोऽस्य नास्त्यतः ।। १७९ ।। पृ० ६३ अर्थ — तैजसशरीर के द्वारा न कर्म बंधते हैं और न कर्म निर्जरा होती है । तैजसशरीर के द्वारा किचित् भी उपभोग नहीं होता है । इसलिए तेजसकाययोग नहीं होता है । - - जै. ग 30-11-72 / VII / र. ला. जैन, मेरठ श्रागम में तेजसकाययोग न कहने का कारण शंका- तेजसशरीर का सम्बन्ध भी इस जीव के साथ अनादिकाल से है और कार्मणशरीर का सम्बन्ध भी अनादिकाल से है । कार्मणकाययोग का कथन तो आगम में पाया जाता है, किन्तु तेजसकाययोग का कथन आगम में नहीं पाया जाता है। इसका क्या कारण है ? समाधान-कर्मों को ग्रहण करने की शक्ति योग है। योग वैभाविकपर्यायशक्ति है, द्रव्य-शक्ति नहीं है, क्योंकि शरीरनामकर्मोदय से यह शक्ति जीव में उत्पन्न होती है । चौदहवें गुणस्थान में शरीरनामकर्मोदय के अभाव में योगरूप वैभाविकशक्ति का भी अभाव हो जाता है, इसीलिये चौदहवें गुणस्थान की अयोगकेवली संज्ञा है । जितनी भी वैभाविकशक्तियाँ हैं वे सब पर्यायशक्तियाँ होती हैं, क्योंकि दूसरे द्रव्य के साथ बंध होने पर वैभाविकशक्तियाँ होती हैं और बंध से मुक्त हो जाने पर इन वैभाविकशक्तियों का अभाव हो जाता है । Jain Education International पुग्गल विवाहदेहोबयेण मणवयण कायजुसस्स । जीवस्स जा हु सती कम्मागमकारणं जोगो ॥ २१६ ॥ जीवकाण्ड गोम्मटसार पुद्गल - विपाकी शरीरनामकर्म के उदय से, मन, वचन, काय युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूतशक्ति है वह योग है । कर्मग्रहण की शक्ति जीव में विग्रहगति के समय कार्मणशरीर से उत्पन्न होती है । मनुष्य व तियंचों के अपर्याप्त श्रवस्था में कार्मणशरीर व श्रदारिकशरीर इन दोनों के मिश्रण से उत्पन्न होती है, तथा पर्याप्त अवस्था में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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