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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २५६ यह कहना भी ठीक नहीं कि जो आत्मप्रदेश स्थित हैं उनमें कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि योग थोड़े से जीव प्रदेशों में नहीं होता, एक जीव में प्रवृत्त हुए योग की थोड़े से ही अवयवों में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है अथवा एकजीव में उसके खण्ड-खण्डरूप से प्रवृत्त होने में विरोध आता है । इसलिये स्थित जीवप्रदेशों में कर्मबन्ध होता है यह जाना जाता है। दूसरे योगसे समस्त जीवप्रदेशों में नियम से परिस्पन्द होता हो ऐसा नहीं है। धवल पु० १२ पृ० ३६६-३६७ । -ज. ग. 26-12-68/VII/ म. मा. स्थित ( अचल ) जीव प्रदेशों में भी योग एवं कर्मबन्ध होता है शंका-क्या आत्मा का योगगुण एक ही समय में सकम्प और अकम्प रूप रहता है ? ऐसा कथन सुनकर कोई कोई यह कहते हैं कि आत्मा का अमुकप्रदेश शुद्ध है और अमुकप्रदेश अशुद्ध है, सो वास्तविकता क्या है ? समाधान-'योग' आत्मा का कोई गुण नहीं है, किन्तु विभावपर्याय है, क्योंकि योग मात्र अशुद्धजीव में होता है। श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड में योग का लक्षण निम्न प्रकार कहा पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स ।। जीवस्स जा ह सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥२१॥ अर्थ-मन, वचन, काय से युक्त जीवकी पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्मोदय से जो कमों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है वह योग है। कर्मों के ग्रहण करने की शक्ति अर्थात् योग जीवकी पर्याय शक्ति है, क्योंकि यह शक्ति मन, वचन, काय से युक्त जीवमें अर्थात अशुद्ध-जीव में ही पाई जाती है और शरीर नामकर्मोपाधि जनित है। अतः योग न तो आत्मा का गुण है और न आत्मा की द्रव्यशक्ति है। धवल पु० १२ में इसी प्रकार की शंका उठाते हुए शंकाकार ने कहा है "जो जीवप्रदेश अस्थित हैं उनके कर्मबन्ध भले ही हो, क्योंकि वे प्रदेश योगसहित हैं, किन्तु जो जीवप्रदेश स्थित हैं उनके कर्मबन्ध का होना संभव नहीं है, क्योंकि वे योग से रहित हैं इसका समाधान श्री वीरसेनआचार्य ने निम्नप्रकार किया है "मण-बयण-कायकिरिया समृप्पत्तीए जीवस्स उवजोगो जोगो णाम । सोच कम्मबंधस्स कारणं । ण च सो थोवेसु जीवपदेसेसु होदि, एगजीवपयत्तस्स थोवावयवेसु चेव बुत्तिविरोहादो एक्कम्हि जीवे खंडखंडेण पयत्तविरोहादो वा । तम्हा द्विवेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अस्थि त्ति णव्वदे । ण जोगादो णियमेण जीवपदेसपरिप्फंदो होदि, तस्स तत्तो अणियमेण समुप्पत्तीदो ण च एकांतेण णियमो गस्थि चेव, जदि उप्पज्जदि तो तत्तो चेव उप्पज्जदि ति णियमुबलंभावो । तबो टिवाणं पि जोगो अस्थि त्ति कम्मबंध भूयमिच्छियव्वं ।" अर्थ-मन, वचन और काय सम्बन्धी क्रिया की उत्पत्ति में जीव का उपयोग होता है वह योग है और वह कर्मबंध का कारण है। परन्तु वह थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं हो सकता, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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