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________________ २५६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : सूक्ष्मवचनयोग, सूक्ष्मउच्छ्वास का अभाव होकर सूक्ष्मकाययोग का भी निरोध तीसरे शुक्लध्यान में हो जाता है । इस क्रम से सम्पूर्ण योगका निरोध हो जाने पर अयोगिजिन हो जाते हैं। धवला पु. पृ०४१४-४१६ । -जे. ग. 5-6-77/IV/प्र. के. ला. व्याघात से योग परिवर्तन शंका-योग का पलटन व्याघात से भी होता है । व्याघात का क्या अर्थ है । समाधान-शरीर को धक्का लगने पर या अचानक किसी प्रकार की ऐसी जोर से आवाज हो, जिससे शरीर उचक पड़े या अन्य कोई आघात जिससे यकायक शरीर में विशेष क्रिया हो जावे, उस व्याघात के कारण मनोयोग या वचनयोग पलटकर काययोग हो जाता है, किन्तु व्याघात के कारण काययोग पलटकर मनोयोग या वचनयोगरूप नहीं होता। -जे. ग. 16-5-63/lX/ प्रो. म. ला. जे. एक योग द्वारा प्रतिसमय एकाधिक प्रकार की वर्गणाओं का ग्रहण शंका-धया यह निश्चित एवं जरूरी है कि आहारककाययोग से आहारकवर्गणा ही आती हों, इसी तरह वचनयोग से वचनवर्गणा ( भाषावर्गणा ) और मनोयोग से मनोवर्गणा ही आती हों, अन्य वर्गणा न आती हों ? समाधान-आहारककाययोग के समय आहारकशरीर वर्गणा तो आती ही हैं, किन्तु भाषावर्गणा और मनोवर्गणा भी पाती हैं । इसीप्रकार वचनयोग के समय आहारकवर्गणा ( अर्थात् औदारिकशरीरवर्गणा, वैक्रियिकशरीरवर्गणा, प्राहारकशरीरवर्गरणा में से कोई एकवर्गणा ) तथा भाषावर्गणा तो आती ही है यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय है तो मनोवर्गणा भी पाती है। इसी प्रकार मनोयोग के समय आहारवर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणा तीनों प्रकार की वर्गणा आती हैं, क्योंकि मन, वचन, काय की युगपत् प्रवृत्ति सम्भव है । कहा भी है 'मनोवाक्काय प्रवृत्तयोऽक्रमेण क्वचिद् दृश्यन्त इति चेद्भवतु तासां तथा प्रवृत्ति ष्टत्वात्, न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिस्तथोपदेशाभावादिति । पूर्वप्रयोगात् प्रयत्नमन्तरेणापि मनसः प्रवृत्तिई श्यते इति चेद्भवतु, न तेन मनसा योगोऽत्र मनोयोग इति विवक्षितः, तनिमित्त प्रयत्नसम्बन्धस्य परिस्पन्दरूपस्य विवक्षितत्वात् ।' धवल पु०१ पृ० २७९-२८३ । __ यदि मन, वचन, काय की युगपत् प्रवृत्तियां देखी जाती हैं तो उनकी युगपत् वृत्ति होओ, परन्तु इससे मन, वचन काय की प्रवृत्ति के लिये युगपत प्रयत्न सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि आगम में इस प्रकार का उपदेश नहीं मिलता है। पूर्व प्रयोग से प्रयत्न के बिना भी यदि मनकी प्रवृत्ति होती है तो होने दो, क्योंकि ऐसे मन से होने वाले योग को मनोयोग कहते हैं, ऐसा अर्थ यहाँ पर विवक्षित नहीं है, किन्तु मन के निमित्त से जो परिस्पन्दरूप प्रयत्न विशेष होता है, वह योग है ऐसा विवक्षित है। यदि वचनयोग के समय मात्र भाषावर्गणानों का ही ग्रहण हो और मनोवर्गणा व आहारवर्गणा का ग्रहण न हो तो द्रव्य मन व शरीर की स्थिति कैसे सम्भव हो सकती है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के प्रत्येक योग के द्वारा मनोवर्गणा, भाषावर्गणा आहारवर्गणा, कार्मणवर्गणा व तेजसवर्गणा का ग्रहण होता है। -णे. ग. 5-2-76/VI/ज. ला. गैन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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