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________________ २५४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : प्रकार की पर्याय है इसीलिए इसको औदयिकभाव स्वीकार किया है । वीर्यअन्तरायकर्म के क्षयोपशम के कारण योग में हानि-वृद्धि होती है अतः इस अपेक्षा से योग को क्षायोपशमिकभाव भी कहा है, अर्थात् योग में क्षायोपशमिकभाव का उपचार किया गया है। श्री वीरसेन स्वामी ने कहा भी है "एत्थ ओदइय भावट्ठारोण अहियारो, अघादिकम्माणमुदएण तप्पा ओग्गेण जोगुप्पत्तीबो । जोगो खओवसमिओति के वि भणति । तं कथं घडवे ? वीरियंतराइयक्खओवसमेण कत्थ वि जोगस्स वडिमुवलक्खिय खओवसमियतपदुप्पायनादो घडदे ।" धवल १० पृ० ४३६ । अर्थ - यहाँ श्रौदयिकभाव स्थान का अधिकार है, क्योंकि योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघातिया कर्म के उदय से है । यदि यह कहा जाय कि कुछ आचार्यों ने योग को क्षायोपशमिक कहा है वह कैसे घटित होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि वहाँ पर वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से योग की वृद्धि को देखकर योग को क्षायोपशमिक प्रतिपादन किया गया है, अतएव वह भी घटित हो जाता है । इस प्रकार योग कर्मजनित ( औदयिक ) भाव है, आत्मा का निज स्वभाव नहीं है; अतः तत्प्रायोग्य कर्मोदय के अभाव में योग का अथवा कर्मग्रहण शक्ति का भी अभाव हो जाता है । जो योग को श्रदयिकभाव स्वीकार नहीं करते, किन्तु मात्र आत्मा से ही उत्पन्न हुई शक्ति मानते हैं, वे योग का सद्भाव सिद्ध अवस्था में भी शक्तिरूप से मानते हैं, किन्तु उनका यह श्रद्धान आर्षग्रंथ अनुकूल नहीं है । “कायवाङ्मनः कर्मयोगः ||१|| स आसूवः ||२||" त० सू० अध्याय ६ । अर्थात् - शरीर, वचन और मनरूप क्रिया योग है और वह योग आस्रवका कारण होने से आस्रव है । शरीर, वचन और मनरूप क्रिया अर्थात् आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द वह योग है और वह कर्मआसव का कारण है । "जीवस्सप्पणियोओ जोगो त्ति जिरोहि णिद्दिट्ठो ।" धवल पु० १ पृ० १४० । जीव के परिणयोग अर्थात् परिस्पन्दरूप क्रिया को योग कहते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कथन किया है । 'कर्मजनितस्य चैतन्यपरिस्पन्दस्यासू व हेतुत्वेन विवक्षितत्वात् ।' धवल पु० १ पृ० ३१६ । अर्थ – कर्मजनित चैतन्य परिस्पन्द ( आत्म प्रदेश परिस्पन्द ) ही आस्रव का कारण है । 'परिस्पन्दनरूप पर्य्यायः क्रिया । पंचास्तिकाय गाथा ९८ टीका । अर्थात् - परिस्पन्दनरूप जो पर्याय है वह क्रिया है । इसप्रकार 'आत्मप्रदेशपरिस्पन्दन' 'क्रिया' और 'योग' ये तीनों एकार्थवाची हैं । श्रात्मा में निष्क्रियत्वशक्ति क्योंकि आत्म-स्वभाव निष्क्रिय है । 'सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रदेशनेष्पद्यरूपा निष्क्रियत्वशक्तिः ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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