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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [२५१ भी अन्तरंग कारण कहा गया है। अर्थात् योग के लिये शरीरनामकर्म का उदय बाह्यकारण और अन्तरायकर्म का क्षयोपशम अन्तरंगकारण ये दो कारण कहे गये हैं। बारहवें गुणस्थान तक तो अन्तरंग और बहिरंग ये दोनों कारण रहते हैं। और तेरहवें गुणस्थान में अंतरायकर्म और ज्ञानावरण का उदय हो जाने पर इन कर्मों के क्षयोपशम का प्रभाव हो जाने से अंतरंग कारण का अभाव हो जाता है। अतः सयोगकेवली जिन के मात्र शरीरनामकर्मोदय से प्राप्त तीन प्रकार की वर्गणानों का आलम्बन बाह्य कारण रह जाता है। इसी बात को श्री पूज्यपाद स्वामी ने सवार्थसिद्धि टीका में कहा है "क्षयेऽपि त्रिविधवर्गणापेक्षः सयोगकेवलिनः आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगो वेदितव्यः ।" ( स० सि०६१) अर्थात वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणकर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोगकेवली के शरीरनामकर्मोदय से प्राप्त तीनवर्गणामों की अपेक्षा आत्मप्रदेशपरिस्पन्द होता है उसको योग जानना चाहिए। श्री अकलंकदेव ने भी अध्याय ६ सूत्र १ की टीका में इसी बात को इन शब्दों में कहा है "यदि क्षयोपशमलब्धिरभ्यन्तरहेतु, क्षये कथम् । क्षयेऽपि हि सयोगकेवलिनः त्रिविधयोग इष्यते । अथ क्षयोनिमित्तोपि योगः कल्पयेत, अयोगकेवलिना सिद्धानां च योगःप्राप्नोति? नैष दोषः, क्रियापरिणामिन आत्मनस्त्रिविधवर्गणालम्बनापेक्षः प्रदेशपरिस्पन्दः सयोगकेवलिनो योगविधिविधीयते, तदालम्बनाभावात उत्तरेषां योगविधिर्नास्ति।" स्वर्गीय श्री पं० पन्नालाल न्यायदिवाकरकृत अर्थ-यहाँ कोई पूछ है, जो वीर्यान्तराय अर ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमजनित लब्धि को योग की प्रवृत्ति में अभ्यन्तरकारण कहा सो क्षय अवस्था में कैसे संभव । जाते वीर्यान्तराय अर ज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होते भी सयोगकेवलीभट्टारक के तीन प्रकार का योग आगम में कहा है। बहरि क्षय निमित्तक भी योग कल्पिए तो अयोगकेवलीभगवान के अर सिद्धों के योग का सद्भाव प्राप्त होय । तात पूर्वोक्त योग का लक्षण में अव्याप्ति अतिव्याप्तिनामा दोष प्राप्त होय है? समाधान-यहां यह दोष नहीं, जातै पुद्गलविपाकी शरीरनामा नामकर्म के उदय करि मन, वचन, काय करि विशिष्ट क्रिया परिणामी आत्मा के ही योग का विधान है। ऐसे आत्मा के मन, वचन, कायसम्बन्धी वर्गणानि के अवलम्बन की अपेक्षा प्रदेशपरिस्पन्दात्मक सयोगकेवली के योगविधि कही है। तहाँ अयोगकेवली तथा सिद्धनिके तिन वर्गणानि के अवलम्बन का अभाव है । तातै तिनके योगविधि का सद्भाव नाहीं, ऐसा जानना ।' ला० जम्बप्रसाद के मंदिर की प्रति पृ० १२६४ । श्री पूज्यपावस्वामी व श्री अकलंकदेव ने अध्याय ६ प्रथम सूत्र की टीका में यह कथन नहीं किया कि योग कौन भाव है। कर्मका उदय व क्षयोपशम में दोनों कारण बतलाये गये हैं और तेरहवेंगुणस्थान में मात्र शरीर नाम का उदय ही कारण बतलाया गया और उसके उदय के अभाव में योग का अभाव बतलाया गया। कर्म का उदय व क्षयोपशम इन दोनों कारणों में से मात्र कर्म के क्षयोपशम को ग्रहण कर यह कहना कि श्री पूज्यपाद स्वामी तथा अकलंकदेव ने योग को क्षायोपशमिक कहा है, और श्री वीरसेन आचार्य योग को औदयिकभाव कहकर इन दोनों प्राचार्यों का विरोध किया है। उचित नहीं है। यदि श्री पूज्यपादस्वामी या श्री अकलंकदेव का योग को क्षायोपशामिकभाव कहने का अभिप्राय रहा होता तो वे तेरहवेंगुणस्थान में मात्र शरीरनामकर्मोदय को कारण न कहते। श्री वीरसेन स्वामी ने इन दोनों प्राचार्यों के कथन की पुष्टि ही की है, किन्तु विरोध नहीं किया है। श्री वीरसेन स्वामी के कथन से एकान्त मान्यता का विरोध अवश्य होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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