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________________ २४४ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! एक्के क्किर से पुलवियाए असंखेज्जलोग मेत्ताणि णिगोदसरीराणि ओरालियतेजा - कम्मइयपोग्यलोवायाणकारणाणि कच्छउ डंडरवक्खारपुलवियाए अंतोद्विददव्य-समाणाणि पुध पुध अनंताणंतेहि णिगोवजीवेहि आउष्णाणि होति । पुणो एत्थ खीणकसासरीरं खंधो नाम; असंखेज्जलोगमे तअंडराणामाधार भावादो । पृ० ८५-८६ । खीणकसाओ अणिगोदो कथं वादरणिगोदो होदि ? ण, पाधण्णपदेण तस्सपि वादरणिगोबवग्गणाभावेण विरोहाभावादो । पृ० ९९ ।" अर्थ - निगोद किन्हें कहते हैं ? पुलवियों को निगोद कहते हैं। यहां पर पुलवियों के स्वरूप का कथन करते हैं - स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवी और निगोद शरीर ये पाँच होते हैं । उनमें से जो वादर निगोद का आश्रयभूत है, बहुत वक्खारों से युक्त है तथा वलंजंतवाणिय कच्छउड समान है, ऐसे मूली थूअर और अद्रक आदि संज्ञा को धारण करने वाला स्कन्ध कहलाता है । वे स्कन्ध असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं, क्योंकि बादर निगोद प्रतिष्ठित जीव असंख्यात लोकप्रमारण पाये जाते हैं। जो उन स्कन्धों के अवयव हैं और जो वलंजु प्रकच्छउड के पूर्वापर भाग के समान हैं, उन्हें अण्डर कहते हैं । जो अण्डर के भीतर स्थित हैं तथा कच्छउड के भीतर स्थित वक्खार के समान हैं उन्हें आवास कहते हैं जो आवास के भीतर स्थित हैं और जो कच्छउड अण्डर वक्खार के भीतर स्थित पिणवियों के समान हैं उन्हें पुलवि कहते हैं। एक-एक आवास की अलग-अलग एक-एक पुलवि में असंख्यात लोक प्रमाण निगोद शरीर होते हैं, जो कि औदारिक, तेजस और कार्मरण पुद्गलों के उपादान कारण होते हैं और कच्छउडअंडर वक्खार पुलवि के भीतर स्थित द्रव्य के समान अलग-अलग श्रनन्तानन्त निगोद जीवों से पूर्ण होते हैं । यहाँ पर क्षीणकषाय जीव के शरीर की स्कन्ध संज्ञा है, क्योंकि वह असंख्यात लोक प्रमाण अण्डरों का आधार भूत है । यदि यह कहा जाय कि क्षीणकषाय जीव निगोदपर्याय रूप नहीं है, इसलिये वह बादर निगोद कैसे हो सकता है ? ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि प्राधान्यपद की अपेक्षा उसे भी बादर निगोद वर्गणा होने में कोई विरोध नहीं आता है । पुरुषार्थ सिद्धिउपाय गाथा ६७ में जो यह कहा है कि “बिना पकी या पकी हुई तथा पकती हुई भी मांस कलियों में उसी जाति के निगोद जीवों का निरन्तर ही उत्पाद होता रहता है ।" यहाँ पर लब्ध्य अपर्याप्त सम्मूच्र्छन जीवों की निगोद संज्ञा है । - जै. ग. 22-3-73 /// मुनि आदिसागरजी, शेडवाल लब्ध्यपर्याप्तक निगोदों के भेद, पर्याप्ति, प्राण, व्यपदेश व योग शंका- लब्ध्यपर्यातक निगोद जीव १. क्या बादर भी होते हैं या सूक्ष्म ही होते हैं ? २. उनके कितनी अपर्याप्तियाँ होती हैं ? ३. उनके श्वासोच्छ्वास प्राण होता है या नहीं ? ४. विग्रहगति में वे लब्ध्यपर्याप्तक कहलाते हैं या नहीं ? ५. क्या उनके कार्मण काययोग कहा जा सकता है ? समाधान - ( १ ) लब्ध्यपर्याप्तक निगोद जीव बादर भी होते हैं और सूक्ष्म भी होते हैं । जिसमें द्वादशांग के सूत्र उद्धृत हैं ऐसे षट्खंडागम में कहा भी है— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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