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________________ ध्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २३६ समाधान-जो एकेन्द्रिय जीव मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न हो रहे हैं उनकी अपेक्षा से पंचेन्द्रिय तियंचों का उत्पाद क्षेत्र सर्वलोक धवल पु०७ पृ. ३७७ पर बतलाया है। महाबंध प०१ पृ० १९९ में जो जीव वर्तमान में पंचेन्द्रिय तियंच हैं और पंचेन्द्रिय जाति का बंध कर रहा है वह मरकर पंचेन्द्रियों में ही उत्पन्न होगा अतः मारणान्तिक समुद्घात अथवा उत्पाद की अपेक्षा उसका स्पर्शन क्षेत्र सर्व लोक नहीं हो सकता है, क्योंकि त्रस नाडी से बाहर ऐसे जीव का उत्पाद नहीं हो सकता है। शंकाकार सूक्ष्म तिर्यंच की अपेक्षा सर्व लोक सिद्ध करना चाहता है किन्तु वह यह भूल गया कि पंचेन्द्रिय तियंचों में सूक्ष्म नहीं होते । मात्र एकेन्द्रियों में ही सूक्ष्म होते हैं। -जे. ग. 31-7-69/V/ ध. वि. घो. प्रत्येक और साधारण शरीर शंका- क्या एक औदारिक शरीर में बहुत सी आत्माएँ हो सकती हैं अर्थात् जीव तो अनंत हों और औदारिक शरीर एक हो ? मैं तो इसका यह अभिप्राय समझा हूँ कि उस स्थूल औदारिक शरीर में जो अनंत जीव हैं वे सब ही पृथक्-पृथक् औदारिक शरीर वाले होते हैं। सब जीव अपने-अपने कर्मों को पृथक्-पृथक् भोगते हैं और बंध करते हैं। जितना बड़ा यह स्थूल शरीर होता है उन सब जीवों का शरीर भी उतना ही स्यूल होता है। समाधान-जीवों के शरीर दो प्रकार के होते हैं १. प्रत्येक २ साधारण। प्रत्येक शरीर में एक शरीर का एक ही स्वामी होता है। अनन्ते जीव जब एक औदारिक शरीर के स्वामी होते हैं उसे साधारण शरीर कहते हैं । यह साधारण शरीर निगोदिया जीवों का होता है जो वनस्पतिकाय होते हैं। साधारण अनन्ते जीवों का एक ही औदारिक शरीर होता है, एक ही प्राहार और एक ही श्वासोच्छ्वास होता है । यद्यपि इन जीवों के अपने-अपने कर्मबन्ध पृथक्-पृथक् होते हैं और पृथक्-पृथक ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं फिर भी उनका एक औदारिक शरीर होने में कोई बाधा नहीं आती किन्तु कार्माण व तैजस शरीर सब जीवों का पृथक् पृथक् होता है। देखिये १० ख० पुस्तक १४ । -जें. सं. 24-1-57/VI/रा. दा. कैराना साधारण वनस्पति कायिक ( निगोद ) सिद्धालय में भी हैं शंका-कहा जाता है कि सिद्धालय में भी निगोदिया जीव होते हैं। क्या यह सत्य है ? यदि सत्य है तो वे निगोविया जीव मुक्त हैं या ससारी? समाधान-सूक्ष्म निगोदिया लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। श्री षट्खण्डागम में कहा भी है-“वणप्फदिकाइय णिगोदजीवा सुहमवणप्फदिकाइया सुहमणिगोदजीवा तस्सेव पज्ज-अपज्जत्ता सत्वाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते? सव्व लोए ॥४५-४६॥ कुदो? सम्वलोगं णिरंतरेणवाविय अवदाणादो।" धवल पु.७१.३३७-३३८ । अर्थ- वनस्पतिकायिक पर्याप्त, वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोदजीव, निगोद जीव पर्याप्त, निगोद जीव अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद जीव, सूक्ष्म निगोद जीव पर्याप्त और सूक्ष्म जीव अपर्याप्त, ये स्वस्थान समुद्घात व उपपाद की अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ४५ ॥ उपर्युक्त जीव सर्वलोक में रहते हैं । सूत्र ४६ ॥ क्योंकि निरंतर रूप से सर्वलोक को व्याप्त कर इनका अवस्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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