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________________ [ २४ ] सर्व प्रथम स्व० पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार की प्रतिभा और क्षमता का सविनय सादर पुण्य स्मरण करता हूँ और उस पुनीत प्रात्मा के प्रति अपने श्रद्धासुमन समर्पित करता है। मैं परम पूज्य (स्व.) आचार्य कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज के पावन चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ। आपके आशीर्वचन ही सदैव हमारे प्रेरणास्रोत रहे हैं । खेद है कि प्रापके संरक्षण एवं मार्गदर्शन में प्रणीत यह ग्रंथ हम आपके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं कर पाए । आपका असीम अनुग्रह ही हमारा सम्बल रहा है । आर्षमार्ग एवं श्रु त संरक्षण की आपको महती चिन्ता थी। लूणवां में मई १९८८ में आपने यमसल्लेखना धारण कर इस युग में जैन शासन की अद्भुत प्रभावना की है। उस परम पुनीत प्रात्मा को शत-शत नमन। पूज्य १०८ श्री वर्धमानसागरजी महाराज का भी मैं अतिशय कृतज्ञ हूँ जिनका वात्सल्यपूर्ण वरद हस्त सदैव मुझ पर बना है । इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में उत्पन्न होने वाली सभी बाधाओं का प्रापने शीघ्रतया परिहार कर हमें निश्चिन्त किया है। पार्षमार्गपोषक इस निस्पृह प्रात्मा के पुनीत चरणों में अपना नमोस्तु निवेदन करते हुए इनके दीर्घ स्वस्थ एवं यशस्वी जीवन की कामना करता हूँ। पूज्य आयिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी का मैं चिरकृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझ पर अनुकम्पा कर इस ग्रन्थ की प्रकाशन योजना में मुझे सम्मिलित किया। त्रिलोकसार, सिद्धान्तसार दीपक और तिलोयपण्णत्ती जैसे महान ग्रन्थों की टीकाकी माताजी अहर्निश श्रु ताराधना में संलग्न रहती हैं। मैं यही कामना करता हूँ कि प्रापको श्रु तसेवा अबाधगति से चलती रहे । पूज्य आर्यिकाश्री के चरणों में शतशः वन्दामि। आभारी हूँ, अनन्यगुरुभक्त आदर्श शिष्य पण्डित जवाहरलालजी जैन सिद्धान्त शास्त्री का, जिन्हें इस विशाल 'कृतित्व' को प्रकाश में लाने का सम्पूर्ण श्रेय है। आपने मुझ सर्वथा अपरिचित अल्पश्र त को अंगीकार कर अपने साथ काम करने का सुअवसर दिया, एतदर्थ मैं आपका चिर कृतज्ञ हूँ। पं. जवाहरलालजी स्वर्गीय पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार के प्रधान शिष्य हैं और सम्प्रति जैन जगत् में करणानुयोग के अप्रतिम विद्वान् । मुझे लगता है मुख्तार सा. की तरह आप भी पूर्वभव के संस्कारी विद्वान् हैं क्योंकि इतनी कम आयु में आपने धवला, जयधवला, महाधवल एवं सम्पूर्ण अन्य जैन वाङमय का पालोड़न कर लिया है और करणानुयोग का विषय आपके स्मृति कोष में सतत् विद्यमान है। आप भी मुख्तार सा• की तरह प्रमाण देते हुए धवल पुस्तकों की पृष्ठ और पंक्ति संख्या तक मौखिक बता देते हैं । अापकी शंका-समाधान शैली मुख्तार सा० की ही तरह की है । 'वृहज्जिनोपदेश' प्रापका इसी शैली का अद्वितीय ग्रन्थ है। आपकी अन्य प्रकाशित मौलिक कृतियां हैं-करणदशक, भावपञ्चक, कर्माष्टक, आधुनिक साधु, पद्मप्रभ स्तवन । इसके अलावा अन्य सम्पादित कृतियाँ भी हैं। मुख्तार सा० की भांति प्राप भी प्रतिवर्ष मुनिसंघों में जाकर आगम ग्रन्थों की वाचना एवं तत्विषयक चर्चा में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। आपको सच्चे अर्थों में मुख्तार सा. का उत्तराधिकारी हो कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। यों श्री जवाहरलाल जी आत्मगोपन प्रवृत्ति के सरलमना, तत्त्वज्ञानी, भवभीरु युवा पण्डित हैं। गत दो तीन वर्षों से आपका स्वास्थ्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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