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________________ २३० ] प्रयोजन नहीं है । यदि द्रव्येन्द्रिय से अभिप्राय पंचेन्द्रिय नहीं हो सकेगा । यदि भावेन्द्रिय से इस सूत्र ३७ में पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म के उदय की विवक्षा है। धवला पु० १ पृ० २६४ । तो विग्रहगति में द्रव्येन्द्रिय का प्रयोजन तो १३ वें १४ वें वाले एकेन्द्रिय - विकलेन्द्रिय की संख्या शंका -- एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय आदि जीवों का प्रमाण बतलाते हुए सर्व जीवराशि के अनन्त खण्ड करने पर उनमें से बहुभाग प्रमाण एकेन्द्रिय जीव और शेष एक खण्ड प्रमाण विकलेन्द्रियादि जीव होते हैं । प्रश्न यह है कि एकेन्द्रिय जीव तो अनन्त हैं और विकलेन्द्रियादि जीव असंख्यात हैं फिर उनकी समानता कैसी ? [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अभाव होने से वहाँ पर जीव पंचेन्द्रिय नहीं हो सकते । अतः - जै. सं. 30-10-58/v/ ब्र. चं. ला. समाधान - एकेन्द्रियों के अतिरिक्त शेष विकलेन्द्रियादि जीव असंख्यात हैं । वे असंख्यात होते हुए भी सर्व जीवराशि के अनन्तवें भाग प्रमाण ही तो हैं । सर्व जीवराशि अनन्तानन्त हैं उसको अपने-अपने योग्य अनन्त का भाग देने से संख्यात, असंख्यात व अनन्त लब्ध आता है । अतः सर्व जीवराशि को ऐसे अनन्त भाग दिया जावे जिससे असंख्यात लब्ध श्रावे और वह असंख्यात विकलेन्द्रियादि जीवों के प्रमाण के बराबर हो । सर्व जीवराशि के इस अनन्तवें भाग को समस्त जीवों की संख्या में से घटा देने पर शेष सर्व जीवों के अनन्त बहुभाग एकेन्द्रियों का प्रमाण अनन्तानन्त आता है । Jain Education International द्रव्येन्द्रिय प्रमारण श्रात्मप्रदेशों का भूमण —जै. सं. 4-10-56/VI / कपू. दे. गया शंका - षट्खण्डागम प्रथम खण्ड सूत्र ३३ पत्र ११६ - ११७ ( शास्त्राकार ) की पंक्ति १६ में इन्द्रिय मार्गणा का स्वरूप करते हुए जो समाधान किया है, वह समझ में नहीं आया है क्योंकि यदि दूव्येन्द्रिय प्रमाण जीव प्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जावे तो अत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवों को भ्रमण करती हुई पृथ्वी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता । इसलिए आत्मप्रवेशों का भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिए । कृपया समझायेंआत्मप्रदेश कैसे भ्रमण करता है ? For Private & Personal Use Only समाधान - कभी - कभी बालक बहुत तेजी के साथ चक्कर खाते हैं अर्थात् पृथ्वी पर एक स्थान पर खड़े होकर तेजी से चारों ओर घूमते हैं अथवा किसी बाँस के खम्भे को पकड़ कर उस बाँस के चारों ओर घूमते हैं । जब वे तेजी से घूमते-घूमते थक जाते हैं तो उनको चक्कर अर्थात् घिरणी आ जाती है । उस समय उनकी द्रव्य इन्द्रियों के आत्मप्रदेश बहुत शीघ्रता से भ्रमण करते हैं जिसके कारण उन बालकों को पृथ्वी भ्रमण करती हुई दिखलाई देती है । यहाँ पर आचार्य कहते हैं कि यदि यह माना जावे कि इन्द्रिय प्रमाण जीव प्रदेशों का भ्रमण नहीं होता तो तेजी से गोल चक्कर रूप घूमने वाले उन बालकों को भी पृथ्वी घूमती हुई दिखाई न देती, किन्तु उन बालकों को पृथ्वी घूमती हुई दिखलाई देती है । अतः द्रव्य इन्द्रिय प्रमाण जीवप्रदेश भी भ्रमण करते हैं । काँच के एक बर्तन में पानी गर्म होने को रख दो। उस पानी में एक लाल रंग ( पोटेशियम परमैंगनेट ) की कणिका डाल दो तो यह दिखाई देगा कि नीचे का लाल रंग का पानी गर्म होकर ऊपर आता और ऊपर का सफेद पानी उसके स्थान पर नीचे जाता है। इस प्रकार काँच के उस बर्तन में जल नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे भ्रमण करता हुआ गर्म होता है । इसीप्रकार से जीव के सिर के प्रदेश पैरों में और पैरों के प्रदेश सिर की और भ्रमण करते हैं । - जै. सं. 24-5-56 / VI / कपू. दे. गया www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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