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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [२२३ मतिज्ञान का आधार मन में नहीं कहा जाता है। क्योंकि यह मतिज्ञान इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से और इंद्रियों के निमित्त से उत्पन्न होता है अतः इस मतिज्ञान को भावेन्द्रिय भी कहा गया है । कहा भी है "लब्ध्युपयोगो भावेन्द्रियम्" ॥२-१८॥ ( तत्त्वार्थ सूत्र )। अर्थ-लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। "ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः लब्धि । यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रिय निवृत्ति प्रति व्याप्रियते तन्निमिस आत्मनः परिणाम उपयोगः तदुभये भावेन्द्रियम् । इंद्रिय फलमुपयोगः, तस्य कथमिन्द्रियत्वम् ? कारणधर्मस्य कार्य दर्शनात् ।" सर्वार्थसिद्धि।। अर्थ-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं। जिसके संसर्ग से आत्मा द्रव्य इंद्रियों की रचना करता है। उसे लब्धि व द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से जो जाननेरूप आत्मा के परिणाम होते हैं उस आत्मपरिणाम को उपयोग कहते हैं। लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियां हैं। यदि कहा जाय कि उपयोग इंद्रिय का फल है, वह इंद्रिय कैसे हो सकता है ? तो आचार्य कहते हैं कि "कारण का धर्म कार्य में देखा जाता है, अतः इंद्रिय के फल उपयोगरूप ज्ञान को इंद्रिय मानने में कोई आपत्ति नहीं है। लघीयस्त्रय टीका में भी कहा है "अर्थ-ग्रहण-शक्तिः लब्धिः । उपयोगः पुनरर्थग्रहणव्यापारः।" अर्थ---अर्थग्रहण की शक्ति लब्धि है । अर्थग्रहणरूप व्यापार उपयोग है। इससे इतना स्पष्ट हो जाता है कि भावेन्द्रियों का प्राधार पुद्गलद्रव्य है, क्योंकि द्रव्येन्द्रियाँ पुद्गलपरिणाम हैं। -जें. ग. 2-4-70/VII/रो. ला. मि. सिद्धालय में भी एकेन्द्रिय हैं शंका-सिद्धक्षेत्र में कौन कौन प्रकार के जीव पाये जाते हैं ? समाधान-लोक के अन्त में सिद्ध क्षेत्र है। एकेन्द्रिय जीव तथा पाँच स्थावरकाय जीवों का सर्व क्षेत्र है। कहा भी है "तदनंतरमूवं गच्छंत्यालोकांतात् ॥१०॥५॥ ( तत्त्वार्थसूत्र ) कर्मों से मुक्त हो जाने के पश्चात् जीव अर्थात् सिद्ध जीव लोक के अंत तक जाता है, क्योंकि आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है।। "इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता केवडिखेत्ते, सव्वलोगे ॥१७॥" -धवल पु०४ पृ०८१। "कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवाउकाइया बादरवणप्फदिकाइय पत्तेयसरीरा तस्सेव अपज्जत्ता, सुहुमपुढविकाइया सुहम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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