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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इसप्रकार श्री पूज्यपाद आचार्य व श्री वीरसेन आचार्य का जो मत है, बही मत श्री अकलंकस्वामी का है । इन आचार्यों में कोई मतभेद नहीं है । २२० ] किन-किन कर्मों के उदय से जीव एकेन्द्रिय होता है ? शंका- ज्ञानपीठ से प्रकाशित त. रा. वा. पृ० १३५ व सर्वार्थसिद्धि पृ० १८० पर स्पर्शनइन्द्रिय को उत्पत्ति का कथन है, उन दोनों कथनों में अन्तर क्यों है ? - पत्राचार / ज. ला. जैन, भीण्डर समाधान -- सर्वार्थसिद्धि अ० २ सूत्र २२ पृ० १८० पर लिखा है "वीर्यान्तरायस्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसघातिस्पर्ध कोदये च शरीरनामलाभावष्टम्भे एकेन्द्रियजातिनामोदय वशवर्तितायां च सत्यां स्पर्शनमेक मिन्द्रियमाविर्भवति ।" अर्थ - वीर्यान्तराय तथा स्पर्शनइन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम होने पर और शेष इन्द्रियों के सर्वघातीस्पर्धकों के उदय होने पर तथा शरीरनामकर्म के आलम्बन के होने पर और एकेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय की प्राधीनता के रहते हुए एक स्पर्शनइन्द्रिय प्रकट होती है । इसी प्रकार त रा. वा. में कथन है, किन्तु वहाँ पर 'शरीरनामला भावष्टम्भे' के स्थान पर 'शरीरांगोपांगलामोपष्टम्भे' है जो लेखक की भूल प्रतीत होती है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव के 'शरीरांगोपांग' का उदय नहीं होता है । कहा भी है पचेव उदयठाणा सामण्इं दियस्स णायव्वा । इमि व पडछ सत्त य अधियावीसा य होइ णायच्या ॥१९२॥ पंचसंग्रह पृ. ३७९ अर्थ - इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा सामान्यतः एकेन्द्रियजीव के २१, २४, २५, २६, २७ प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान नामकर्म के होते हैं । नामकर्म की २१ प्रकृतिक उदयस्थान की प्रकृतियाँ इसप्रकार हैं तियंचगति, एकेन्द्रियजाति, तेजस और कार्मणशरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तियंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुक, स्थावर, बादर और सूक्ष्म इन दो में से कोई एक, पर्याप्त और अपर्याप्त में से एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्ति में से एक, निर्माण । इन २१ प्रकृतियों में से आनुपूर्वी को घटाकर ( श्रदारिक शरीर, हुंडकसंस्थान, उपघात, प्रत्येक तथा साधारणशरीर में से एक ) इन चार प्रकृतियों को मिला देने पर नामकर्म का २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । पर्याप्तएकेन्द्रिय के पूर्वोक्त २४ प्रकृतियों में परघात मिलाने पर २५ का उदयस्थान होता है । इसमें उच्छ्वास प्रकृति मिला देने पर २६ का उदयस्थान होता है । धवल पु० ७ पृ० ३६-३९ । Jain Education International उपरोक्त उदय प्रकृतियों से स्पष्ट हो जाता है कि एकेन्द्रियजीव के शरीरांगोपांग का उदय नहीं होता है । अत: रा. वा. पृ० १३५ पर “ शरीरांगोपांगला भोपष्टम्भे" यह लेखक की भूल का परिणाम प्रतीत होता है । विद्वान् इस पर विचार करने की कृपा करें । - जै. ग. 3-4-69 / VII / क्षु. श्री. सा. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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