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________________ २१८ ] इन्द्रिय मार्गरणा एकेन्द्रियों में हिताहित का विवेक शंका- क्या एकेन्द्रिय वनस्पति में इतनी शक्ति है जो अपने भले बुरे की सोच सकता है ? समाधान --- एकेन्द्रियजीव के मन नहीं होता, तथापि मति श्रुत ये दो ज्ञान होते हैं। इन ज्ञानों के द्वारा ही उस एकेन्द्रियजीव की हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति होती है । कहा भी है- 'मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और ग्रहित से निवृत्ति देखी जाती है । धवल पु० १ पृ० ३६१ । ' जै. ग. 31-10-63 / IX / क्षु. आ. सा. [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : रसनादि इन्द्रियाँ स्पर्श करके तथा स्पर्श किये बिना भी जानती हैं। शंका - गोम्मटसार में लिखा है कि एकेन्द्रियजीव के स्पर्शनइन्द्रिय का विषय क्षेत्र ४०० धनुष है, दो इन्द्रिय जीव के रसनाइन्द्रिय का विषय क्षेत्र ६४ धनुष है । सो क्या वस्तु के इतने दूर होने पर भी उनको इन्द्रियों द्वारा उस वस्तु का ज्ञान हो जाता है ? अथवा इसका कुछ अन्य अभिप्राय है ? समाधान - स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्त अर्थ को भी ग्रहण करती हैं । कहा भी है --- पुट्ठ सुइ सद्द अप्पुट्ठ चेय पस्सदे रूवं । गंध रसं च फासंबद्ध पुट्ठे च जाणादि ॥ ५४ ॥ धवल पु. ९ पृ. १५९ अर्थ-चक्षु रूपको अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है, च शब्द से मन भी अस्पृष्ट ही वस्तु को ग्रहण करता है । शेष इन्द्रियाँ गंध, रस, स्पर्श को बद्ध अर्थात् अपनी-अपनी इन्द्रियों में नियमित व स्पृष्ट ग्रहण करती हैं, च शब्द से अस्पृष्ट भी ग्रहण करती हैं। 'स्पृष्ट शब्द को सुनता है' यहाँ भी बद्ध और च शब्द को जोड़ना चाहिये, क्योंकि ऐसा न करने से दूषित व्याख्यान की आपत्ति प्राती I इस आवाक्य से यह सिद्ध हो जाता है कि स्पर्शनइन्द्रिय व रसनाइन्द्रिय पदार्थ को स्पर्श करके भी जानती है और दूरवर्ती पदार्थ को बिना स्पर्श किये भी जानती है । कहा भी है 'वनस्पतिष्व प्राप्तार्थग्रहणस्योपलंभात् । तदपि कुतोऽवगम्यते ? दूरस्थनिधिमुद्दिश्य प्रारोहमुक्त्यन्यथानु - पपत्तेः । धवल पु० ९ पृ० १५७ । अर्थ- वनस्पतियों में अप्राप्त अर्थ का ग्रहण पाया जाता है, क्योंकि दूरस्थ निधि ( खाद्य आदि ) को लक्ष्य करके प्रारोह ( शाखा ) का छोड़ना अन्यथा बन नहीं सकता । Jain Education International "एवं दिए फासिंदियस्स अपत्तणिहिग्गह णुवलंभादो । तदुवलंभो च तत्थ पारोहमोच्छणादुवलब्भवे । घाणिदिय - भिदियासिंदियाणमुक्कस्सविसओ णव जोवणाणि । जदि एदेसिम दियाणमुक्कस्सखओवस मगदजीवो णवसु जोयस द्विददेहितो विपडिय आगदपोग्गलाण जिम्मा - घाण - फासिदिएस लग्गाणं रस-गंध-फासे जाणदि तो समंतदो नवजोयणमंतर द्विबगृहभक्खणं तग्गंधजणिद असावं च तस्स पसज्जेज्ज । न च एवं तिष्विदियक्खओवसम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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