SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २२ ] लाग-लपेट और पक्षव्यामोह के पण्डितजी की लेखनी प्रवाहित हुई है । समाधानों की भिन्नता के कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं (१) ग्रंथ के पृष्ठ ७७ पर 'अनन्तवीर्य मुनि का केवलज्ञान के बाद ५०० धनुष ऊर्ध्वगमन' लिखा है । परन्तु ईसा की सातवीं शताब्दी के अन्त में उत्पन्न अपने युग के महान् तपस्वी प्राचार्य जटा सिंहनन्दि ने 'वरांगचरित' में वरदत्त केवली का शिलातल पर बैठना लिखा है तस्यागुशिष्यो वरदत्तनामा सद्दृष्टिविज्ञानतपः प्रभावात् । कर्माणि चत्वारि पुरातनानि विभिद्य केवल्यमतुल्यमापत् ॥२॥ * * * तस्यैकदेशे रमणीयरूपे शिलातले जन्तुविर्वाजते च । दयावन्तमदेन्द्रियाश्वः सहोपविष्टो मुनिभिः मुनीन्द्रः ॥६॥ -- व. च. पृ. २६-२७ सं. ए. एन. उपाध्ये अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद भी केवली का स्पष्टतः शिलातल पर बैठना लिखा है । फिर उसी शिलातल पर बैठे वरदत्त केवली ने ( राजा के प्रश्न के आधार पर ) धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया ( श्लोक ४४ का भाव ) । Jain Education International (२) पृष्ठ ५०६ पर पं० जवाहरलालजी जैन की शंका के समाधान के दूसरे अनुच्छेद में लिखा है कि 'यदि शैलरूप स्पर्धक का अनुभाग घट कर अस्थिरूप हो जाय तो उसके द्रव्य को ऊपर या नीचे के निषेक में जाने की आवश्यकता नहीं है।' इसका सीधा अभिप्राय यह होता है कि अनुभाग अपकर्षरण में स्थिति प्रपकर्षण की आवश्यकता नहीं होती । इस सम्बन्ध में पं० जवाहरलालजी ने सूचित किया है कि "जयधवला पुस्तक १४ पृष्ठ ३११ पर इससे भिन्न लिखा है- 'सब्वे चेव अणुभागा द्विबिदुवारेण ओकड्डिज्जंति' अर्थात् सभी अनुभाग स्थिति द्वारा श्रपकर्षित होते हैं । ऐसा भासित होता है कि पुस्तक १४ का यह कथन स्थूलत: है क्योंकि कुल १४८ कर्म प्रकृतियों में से पाप प्रकृतियाँ ही अधिक होती हैं। पाप प्रकृतियों की स्थिति तथा अनुभाग दोनों प्रशुभ ही होते हैं । ( गो० क० गाथा १५४, १६३ ) अतः पाप प्रकृतियों के अनुभाग के अपकर्षरण के समय स्थिति श्रपकर्षण भी होगा ही; श्रतः स्थिति अपकर्षण से अनुभाग अपकर्षरण होता है, यह कथन बन जाएगा । मात्र अल्पसंख्यक पुण्यप्रकृतियों में यह विशेषता है कि जब संक्लेश भाव होता है तब उन पुण्य प्रकृतियों में स्थिति का तो उत्कर्षण होगा परन्तु अनुभाग का अपकर्षण होगा और विशुद्ध परिणाम के समय स्थिति का तो अपकर्षण होगा पर अनुभाग उत्कर्षित होगा । क्योंकि तीन प्रायु को छोड़कर सभी पुण्य प्रकृतियों की स्थिति अशुभ है और अनुभाग शुभ है अतः विशुद्ध परिणामों से पुण्य प्रकृतियों में अनुभाग अपकर्षण न होकर मात्र स्थिति अपकर्षण होता है। इसके विपरीत संक्लेश के समय स्थिति उत्कर्षण व अनुभाग अपकर्षण होता है । अतः पुण्य प्रकृतियों में स्थिति श्रपकर्षण व अनुभाग अपकर्षण, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy