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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २११ अधिक से अधिक मनुष्य के ४८ भव ही मिलें; ऐसा कोई नियम नहीं शंका-दो हजार सागर के काल में मनुष्य के मात्र ४८ भव होते हैं जिसमें १६ भव पुरुष के, १६ भव स्त्री के, और १६ भव नपुसक के होते हैं। उसी में गर्भपातादि को भी भय की गणना में माना गया है। ऐसा विद्वानों के द्वारा उपदेश में कहा जाता है । ऐसा कथन किस ग्रंथ में है ? समाधान-उपर्युक्त कथन तथा चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरणचारित्र का कथन इत्यादि कुछ ऐसे कथन हैं जो कि किंवदन्ती के आधार पर चले आ रहे हैं जिनका समर्थन किसी भी आर्ष ग्रंथ से नहीं होता है। विद्वान् बिना खोज किये किंवदन्ती के आधार पर इस प्रकार का कथन कर देते हैं जिससे ऐसी भूलों की परम्परा चल जाती है। यदि इन भूलों का खण्डन किया जाता है तो विद्वान् उससे रुष्ट हो जाते हैं। विद्वानों की विद्वत्ता इसीमें है कि ऐसी भूलों के सम्बन्ध में स्वयं स्वाध्याय द्वारा खोज करें और उन भूलों को दूर करें। एक जीव की अपेक्षा मनुष्यपर्याय का उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक तीनपल्य है। श्री षट्खण्डागम के दूसरे क्षुद्रकबध की काल प्ररूपणा में कहा है "मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी केवचिरं कालादो होंति ? ॥१९॥ उक्कस्सेण तिण्णि पलि. दोवमाणि पुथ्वकोडिपुधत्तेणम्भहियाणि ॥२१॥" अर्थ--मनुष्यगति में जीव मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त ब मनुमिनी कितने काल तक रहते हैं ? अधिक से अधिक पूर्वकोटि से अधिक तीन पल्योपम काल तक जीव मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त व मनुष्यनी रहते हैं । "अणप्पिदेहितो आगंतूण अप्पिदमणुसे सुववज्निय सत्तेतालीसपुवकोडीओ जहाकमेण परिभमिय दारणेण दाणाणुमोदेण वा त्तिपलिदो वमाउट्ठिदि मणुस्सेसुप्पग्णस्स तदुवलंभादो।" अर्थ-किन्हीं भी अविवक्षित पर्यायों से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर संतालीसपूर्वकोटि काल परिभ्रमण करके दान देकर अथवा दान का अनुमोदन करके तीन पल्योपम स्थिति वाले भोगभूमिज मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवों के सूत्रोक्त काल पाया जाता है । अर्थात् एक जीव की अपेक्षा मनुष्यों में निरन्तर उत्पन्न होने का उत्कृष्ट काल ४७ कोटिपूर्व अधिक तीनपल्योपम है। "अणप्पिदजीवस्स अपिदमणुसेसु ववज्जिय इथि पुरिसणवुसयवेदेसु अट्ठपुव्वकोडीओ परिभमिय अपज्जत्तएसुववज्जिय तत्व अंतोमुहुसमच्छिय पुणो इस्थिणवुसयवेदेसु अटुट्ठ पुज्वकोडीओ पुरिसवेदेसु सत्त पुन्वकोडीओ हिंडिय देवुत्तरकुरवेसु तिण्णि पलिदोवमाणि अच्छिय देवेतुववण्णस्स पुष्वकोडिपधत्त भहियतिण्णि पलि दोवममुवलंभा।" धवल पु० ४ पृ० ३७३ । . अर्थ-अविवक्षित जीव के विवक्षित मनुष्यों में उत्पन्न होकर स्त्री, पुरुष और नपुसक वेदियों में क्रमशः आठ-पाठ पूर्वकोटियों तक परिभ्रमण करके लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होकर वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः स्त्री और नपुसकवेदियों में आठ-आठ पूर्वकोटियों तथा पुरुषवे दियों में सात पूर्वकोटि परिभ्रमण करके देवकुरु अथवा उत्तरकुरु में तीन पल्योपम तक रह करके देवों में उत्पन्न होने वाले जीव के ४७ पूर्वकोटियों से अधिक तीन पल्योपम पाये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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