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________________ १६८ ] Mote पर्याप्त व निर्वृत्यपर्याप्तक में अन्तर शंका- लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के सभी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती हैं, ऐसा है क्या ? निर्वृत्यपर्याप्तकों को तो आहार पर्याप्त पूर्ण हो जाती है। ऐसा है क्या ? समाधान - लब्ध्यपर्याप्तक जीव के कोई भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है । उदये तु अपुण्णस्स य, सगसगपञ्जत्तियं ण णिट्ठवदि । अंतोमुहुत्तमरणं, लद्धिअपज्जत्तगो सो बु ॥१२२॥ गो. जी. अर्थ - अपर्याप्त नाम कर्म का उदय होने से जो जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करके अन्तर्मुहूर्त काल में ही मरण को प्राप्त हो जाय उसको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं । "यस्योदयात् षडपि पर्याप्तिः पर्यापयितुम् आत्मा असमर्थो भवति तदपर्याप्तिनाम ।" रा. वा. ८।११।३३ जिसके उदय से छहों पर्याप्तियों में से कोई भी पर्याप्ति पूर्ण करने में आत्मा असमर्थ होती है वह अपर्याप्त नाम कर्म है । [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ - पर्याप्त नाम कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण होता है । तथापि जब तक उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक वह निर्वृत्यपर्याप्तक है । जाती हैं । यज्जत्तस्स य उदये नियणियपज्जत्तिणिट्टिदो होदि । जाव सरीरमपुष्णं णिव्वतिअपुष्णगो तान ॥ १२१ ॥ गो. जी. गर्भ में ही जीव पर्याप्तियों से पर्याप्त हो जाता है शंका- मनुष्य व तियंचों की पर्याप्तियां क्या गर्भ से या जन्म से अन्तर्मुहूर्त पश्चात् पूर्ण होती हैं ? समाधान - गर्भ के प्रथम समय से मनुष्य व तियंचों की पर्याप्तियां प्रारम्भ हो जाती हैं और अन्तर्मुहूर्त पश्चात् पूर्ण हो जाती हैं । - जै. ग. 4-9-69 / VII / सु. प्र. Jain Education International - जै. ग. 13-6 - 68 / IX / र. ला. जैन मेरठ गर्भावस्था में निर्वृत्यपर्याप्तक का काल शंका- गर्भ अवस्था में निर्वृत्यपर्याप्तक का कितना काल है ? समाधान - निर्वृ त्य पर्याप्तक का काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि छहों पर्याप्ति एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण हो पज्जत्तीपटुवणं जुगवं तु कमेण होदि मिटवणं । अंतोमुहतकाले हियकमा तत्तियालावा ।। १२० ।। पज्जसस्स य उदये नियणिय पञ्जत्तिणिद्विदो हौरि । जाय सरीरमपुष्णं णिव्वति अपुष्णगो ताव ॥१२१॥ गो. जी. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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