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________________ १९६ ] जह पुण्णापुष्णाई गिहपडवत्यादि याई दव्वाई । तह पुष्णिवरा जीवा पज्ञ्जसिवरा मुख्यग्वा ॥ ११८ ॥ पज्जतस्स य उदये नियणियपज्जत्तिणिट्टियो होदि । जाव सरीरमपुष्णं निव्वत्ति अपुष्णगो ताव ॥१२१॥ उद व अनुष्णस्य सगसगपज्जलियं ण जिटुवदि । अन्तोमुत्तमरणं तद्धि, अपज्जत्तगो सो बु ॥१२२॥ गो. जी. उसी प्रकार जिन जिस प्रकार घर घट वस्त्रादि अचेतन द्रव्य पूर्ण और प्रपूर्ण दोनों प्रकार के होते हैं जीवों की पर्याप्तियाँ पूर्ण हो गई वे पर्याप्त जीव हैं और जिन जीवों की पर्याप्तियाँ अपूर्ण हैं वे अपर्याप्त जीव हैं। ।। ११८ ।। पर्याप्त नाम कर्मोदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण होता है, तथापि जब तक उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक वह जीव की निर्ऋ त्य पर्याप्ति है ॥ १२१ ॥ अपर्याप्ति नामकर्म का उदय होने से जो जीव अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करके अन्तर्मुहूर्त ( श्वास के अठारहवें भाग या एक सैकण्ड के चौबीसवें भाग ) काल में ही मरण को प्राप्त हो जाय वह लब्ध्यपर्याप्तक जीव है ॥ १२२ ॥ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इस प्रकार पर्याप्त, अपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त जीवों का स्वरूप श्री नेमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य ने कहा है । ./रो. ला. मि. अपर्याप्तक और साधारण में अन्तर - जै. ग. 16-7-70/... शंका- लब्ध्यपर्याप्त और साधारण जीवों में क्या अन्तर है ? समाधान - जीव की परतंत्रता के कारण आठ कर्म हैं, क्योंकि जो जीव को परतंत्र करे वह कर्म है । कहा भी है "जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्री क्रियते वा यैस्तानि कर्माणि ।" आप्तपरीक्षा अर्थ - जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है, उन्हें कर्म कहते हैं । Jain Education International ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र ये आठ कर्म हैं इन आठ कर्मों में से नाम कर्म की बयालीस पिंड प्रकृतियाँ हैं जो इस प्रकार हैं गति, जाति, शरीर, बंधन, संघात, संस्थान, अंगोपांग, संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्वाण, तीर्थंकर ये नाम कर्म की बयालीस पिंड प्रकृतियाँ हैं ||२८|| धवल पुस्तक ६ पृ० ५० । इनमें अपर्याप्त नाम कर्मोदय से जीव लब्ध्यपर्याप्त होता है और साधारण शरीर नाम- कर्मोदय से जीव साधारण होता है । "वविधपर्याप्त्यभाव हेतुरपर्याप्तिनामा" । सर्वार्थसिद्धि ८।११। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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