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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १८१ 'वीतराग सर्वज्ञ दिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं ? भव्यपुण्यप्रेरणात् । ' ( पंचास्तिकाय गा० १ टीका ) वीतराग सर्वज्ञदेव की ध्वनि में भव्य जीव का पुण्य ही कारण है । भव्य जीवों के पुण्योदयवश वचनयोग के निमित्त से दिव्यध्वनि होती है । दिव्यध्वनि का स्वरूप एवं कारण शंका- जिनकी ध्वनि है ओंकार रूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप ।" ऐसा कहा गया है। दिव्यध्वनि चेतन आत्मा द्वारा प्रकट हुई है इसलिये भगवान की दिव्यध्वनि भी चेतन ही होनी चाहिये पुद्गल रूप नहीं, क्योंकि पुद्गल अक्षर रूप है और वाणी निरक्षरी है। समाधान - शब्द पुद्गल द्रव्य की पर्याय है । कहा भी है - जै. ग. 12-6-69/VII / रो. ला. मि. सद्दो बंधो सुमो चूलो संठाणभेदतमछाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ||१६|| द्रव्यसंग्रह शब्द बंध सूक्ष्म स्थूल संस्थान भेद तम छाया उद्योत और आतप ये सब पुद्गल की द्रव्य पर्यायें हैं । 'शब्दो द्विविधो भाषालक्षणो विपरीतश्चेति । भाषा लक्षणो द्विविधः साक्षरोऽनक्षरश्चेति । अक्षरीकृतः शास्त्राभिव्यञ्जकः संस्कृतविपरीत भेदार्यम्लेच्छव्यवहेतुः अनाक्षरात्मको द्वीन्द्रियादीनामतिशयज्ञानस्वरूप- प्रतिपावनहेतुः । स० सि० पृ० २९१ । भाषा रूप शब्द और अभाषा रूप शब्द इस प्रकार शब्दों के दो भेद हैं । भाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं- साक्षर और अनक्षर। जिसमें शास्त्र रचे जाते हैं और जिससे आर्य और म्लेच्छों का व्यवहार चलता है ऐसे संस्कृत शब्द और इससे विपरीत शब्द ये सब साक्षर शब्द हैं। जिससे उनके सातिशय ज्ञान के स्वरूप का पता लगता है ऐसे दो इन्द्रिय आदि जीवों के शब्द अनक्षरात्मक शब्द हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि शब्द अक्षरात्मक हों या अनक्षरात्मक किन्तु दोनों प्रकार के शब्द पुद्गल की द्रव्य पर्यायें हैं, कोई भी शब्द चेतनात्मक नहीं है । तीर्थंकर के वचन सर्वथा अनक्षरात्मक हों ऐसा भी एकान्त नहीं है । कहा भी है "तीर्थंकर वचनमनक्षरत्वाद् ध्वनिरूपं तत एव तदेकम् । एकत्वान्न तस्य द्वं विध्यं घटत इति चेन्न, तत्र स्यावित्यादि असत्यमोषवचनसत्त्वतस्तस्य ध्वनेरनक्षरत्वा सिद्ध ेः । साक्षरत्वे च प्रतिनियतैक भाषात्मकमेव तद्वचनं नाशेषभाषारूपं भवेदिति चेन्न, क्रमविशिष्ट वर्णात्मक भूयः पंक्तिकदम्बकस्य प्रतिप्राणीप्रवृत्तस्य ध्वनेरशेषभाषारूपस्वाविरोधात् । यथा च कथं तस्य ध्वनित्वमिति चेन, एतद्भाषा रूपमेवेति निर्देष्टुमशक्यत्वतः तस्य ध्वनित्वसिद्ध ेः ।" धवल पु० १ पृ० २८४ । अर्थ इस प्रकार है- प्रश्न - तीर्थंकर के वचन अनक्षर रूप होने के कारण ध्वनि रूप हैं और इसलिये वे एक रूप हैं और एक रूप होने के कारण वे सत्य और अनुभय दो प्रकार के नहीं हो सकते हैं ? उत्तर--नहीं, क्योंकि केवली के वचन में 'स्यात्' इत्यादि रूप से अनुभय रूप वचन का सद्भाव पाया जाता है, इसलिये केवली की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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