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________________ [ १८ ] श्री श्रु तसागरजी महाराज व पू. वर्धमानसागरजी महाराज भी यहीं विराजते थे। लगभग ७ मास तक यह सामग्री मुनिश्री के साथ रही। पूज्य वर्धमानसागरजी महाराज प्रा. क. श्री के सानिध्य में इसका वाचन करते थे और यथास्थान योग्य निर्देश/अनुदेश/मार्गदर्शन भी अंकित करते जाते थे। फोटोस्टेट के कुछ पत्रों पर दिनांके न पा पाई थीं प्रतः पुनः अजमेर जाकर इस अपूर्ण कार्य को भी मैंने पूर्ण किया। पूज्य वर्धमानसागरजी म. द्वारा देखी जाने के अनन्तर यह सामग्री डॉ० पाटनी सा० के पास जोधपुर पहुँची। फोटोस्टेट पत्रों में रही भाषा सम्बन्धी भूलों का निराकरण करना, कटिंग व सैटिंग जैसे दुरूह/कष्ट साध्य परिश्रम को करते हुए इन ८०० फोटो स्टेट पत्रों में से प्रत्येक पत्र पर स्थित अनेक शंका-समाधानों में से एक-एक शंका-समाधान की अलग-अलग कटिंग करके, प्रत्येक को एक बड़े आकार के खाली कागज पर चिपकाना तथा नीचे शंकाकार का नाम, स्थान, तथा गजट/सन्देश में प्रकाशन की तिथि व पृष्ठांक अंकित करना; यह सब काम डॉक्टर सा० ने बड़ी लगन से निपटाया। इतना ही नहीं, प्रारम्भ में आपने लगभग पचास साठ फोटो स्टेट पत्रों की तो स्वयं स्वच्छ सुन्दर अक्षरों में लिखकर अलम से पाण्डुलिपि भी बनाई। मेरे अपने शंका-समाधानों तथा श्रीमान् बद्रीप्रसादजी सरावगी आदि से प्राप्त शंका समाधान सामग्री की पाण्डुलिपि भी आपने ही बनाई। उक्त काम करके डॉ० सा० इन्हें मेरे पास भेजते जाते थे। मैं कटिंग-सैटिंग के माध्यम से पृथक् किए गये सुव्यवस्थित शंका-समाधानों को विषयवार विभाजित करता जाता था तथा प्रत्येक पर विषय/उपविषय अंकित करता जाता था। अनेक के विषय शीर्षक तो यथासम्भव डॉ० सा० भी लिख कर भेजते थे । जबसे डॉ० सा० इस कार्य में मेरे साथ संलग्न हुए, उन्होंने मुझसे भी अधिक लगन व श्रद्धा से अनवरत जो योग दिया है, उसे शब्दों में उतार पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है । वे वस्तुतः कर्मठ कर्मयोगी हैं। मैं व डॉ० सा. दिनांक ७-८-८५ को प्राचार्यश्री के चातुर्मास स्थल लूणवां पहुंचे। वहां पहुंच कर हमें सारी सामग्री सुव्यवस्थित कर प्रेस में देने योग्य करनी थी तथा मुद्रण सम्बन्धी अनेक बातों का निर्णय भी करना था। परन्तु सामग्री इतनी विपुल थी कि ५०-१०० पृष्ठ इधर-उधर हो जाएँ तो पता भी नहीं लगे। दुर्भाग्य से हुआ भी ऐसा ही । अब भी कुछ सामग्री पुलन्दों में बँधी अव्यवस्थित पड़ी रह गई। अप्रत्याशित कार्य शेष रह जाने से हमें पुन: २३-११-८५ को वहीं लूणवां जाना पड़ा । अबकी बार चारों ने दिन रात बैठकर वहां विषयोपविषयों व अनुयोगों आदि के अनुसार सामग्री को विभाजित करके एक सर्वसम्मत सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया। ग्रंथप्रकाशन हेतु इस बीच, यथायोग्य द्रव्य, श्रुतप्रेमीदातारों से एकत्र होता गया। डॉक्टर सा० ने अब इस सुव्यवस्थित सामग्री का पुनरावलोकन करते हुए योग्य परिष्कार/परिमार्जन/साजसज्जा कर शनैः शनैः थोड़ाथोड़ा मैटर कमल प्रिन्टर्स, मदनगंज-किशनगढ़ को भेजना प्रारम्भ किया। वे समस्त निर्देशों की पालना करते हुए इस ग्रंथराज का मुद्रण करते गए और इसप्रकार लगभग तेरह वर्षों के कठोर श्रम के बाद यह ग्रंथ प्राज सामने पाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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