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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १७३ सामान्य केवली के दिव्यध्वनि का सद्भाव व गणधर का प्रभाव शंका-सामान्य केवली की वाणी खिरती है या नहीं। यदि खिरती है तो क्या उनके भी गणधर होते हैं ? समाधान-सामान्य केवलियों की वाणी होती है, किन्तु गणधर नहीं होते; क्योंकि उनकी वाणी के द्वारा द्वादशान की रचना नहीं होती और गणधर का मुख्य कार्य द्वादशाङ्ग की रचना करना है। सामान्य केवलियों की सभा में बीजबुद्धि आदि ऋद्धि-धारी विशेषज्ञानी आचार्य होते हैं। -जं. ग. 26-12-68/VII/म. मा. (१) मूक व अन्तकृत् केवली के गन्धकुटी नहीं होती (२) केवलज्ञान होने के बाद ही मोक्ष मिलता है शंका-गंध कुटी क्या प्रत्येक अरिहंत की होती है या किसी विशेष को ? ऐसे ही प्रत्येक जीव को मुक्त होने से पहिले केवलज्ञान होता है या किसी किसी को ? समाधान-मंतकृत् केवली' तथा मूक केवली की गन्धकुटी नहीं होती। जिन केवलियों की दिव्यध्वनि खिरती है उन सबकी गन्ध कुटी होती है । जितने भी जीव मोक्ष गये हैं जा रहे हैं या जायेंगे उन सबको केवलज्ञान होता है । क्योंकि मोहनीय कर्म का नाश होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है और घातिया कर्मों का क्षय हो जाने से केवलज्ञान हो जाता है । कहा भी है मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥१॥ मोक्षशास्त्र अध्याय १० । अर्थ-मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है। यदि यह कहा जाय कि मोहनीय कर्म का क्षय तो दसवें गुणस्थान के अंत में हो जाता है, उसी समय केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि कर्मों के नाश से केवलज्ञान उत्पन्न होता है, यह प्रसिद्धि है ? ऐसी शंका करना ठीक नहीं है। सर्व प्रथम तो यह सूत्र द्वादशांग के अनुसार महान् प्राचार्य द्वारा रचा गया है। दूसरे 'मोहक्षयात्' इस पद से स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय का क्षय होने पर ज्ञानावरणादि शेष तीन घातिया कर्मों का क्षय होता है और ज्ञानावरणादि का घातिया कर्मों का क्षय, केवलज्ञान प्रगट होने में कारण है। इसप्रकार केवलज्ञानोत्पत्ति में मोहनीय कर्म परम्परा कारण है, ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय साक्षात् कारण है। विशेष कथन के लिये सर्वार्थसिद्धि टीका देखनी चाहिये। १. सुदर्शन ( सेठ ) केवली अपवाद स्वरूप हैं। क्योंकि वे पांचवें अन्तकृत केवली थे [ सुदर्शन-चरित, विद्यानन्दि विरचित 3/3/प. 20] उन्हें केवलज्ञान होने पर गन्धकुटी की रचना तथा दिव्यध्वनि भी खिरी [स.च. ११/81-8] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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