SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ____ "कसायामावणदिदिबंधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयविदियसमए चेव अकम्ममावं गच्छंतस्स जोगेणागदपोग्गलक्खंधस्स द्विविविरहिदएगसमए पट्टमाणस्स कालणिबंधणअप्पत्तवंसणादो इरियावहकम्ममप्पमिदि भणिदं।" धवल पु० १३ पृ० ४८ । कषाय का अभाव होने से स्थिति बन्ध के अयोग्य है, कर्मरूप से परिणत होने के दूसरे समय में ही अकर्मभाव को प्राप्त हो जाता है और स्थिति बन्ध न होने से मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है, योग के निमित्त से पाये हए ऐसे पुद्गल-स्कन्ध में काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है। इसलिये ईर्यापथ कर्म अल्प है ऐसा कहा है। -जें.ग.30-12-71/VI/रो. ला. मि. केवली की क्रियाएँ निरीह शंका-केवली समुद्घात उनके विचार (इच्छा) द्वारा होता है ? यदि विचार द्वारा होता है तो दिव्यध्वनि भी विचारों द्वारा खिरती होगी। विहार समय भी किस ओर विहार करना है इसका विचार कौन करता है ? इन्ट विचार करता है या केवली? समवसरण का विघटना तथा बनना इसका विचार इन्द्र करता है या केवली? समाधान-मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से केवली के इच्छा (विचार ) का तो अभाव हो जाता है। प्रतः केवली समुद्घात, दिव्यध्वनि का खिरना, समवसरण का विघटना-बनना तथा विहार आदि कार्य, केवली की इच्छा बिना होते हैं । वेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति-क्षय के लिये केवली समुद्घात स्वयमेव होता है इसके लिये केवली को विचार नहीं करना पड़ता। दिव्यध्वनि और विहार में पूर्वोपार्जित कर्मोदय तथा भव्य पुरुषों का पण्योदय कारण है। विहायोगति नामकर्म के उदय से तो केवली का विहार होता है, किन्तु विहार किस पोर हो. इसमें विहायोगति नाम कर्म कारण नहीं है। इसमें भव्य जीवों का विशेष पुण्योदय कारण है। दिव्यध्वनि में केवलज्ञान. वचनयोग गणधर आदि विशिष्ट ज्ञानी भव्य जीव तथा भाषा वर्गणा आदि कारण हैं। समवसरण के लिये तीर्थकर प्रकृति का उदय, इन्द्र प्रादि की भक्ति, भव्य जीवों का पुण्योदय आदि कारण है। किन्तु इन सब कार्यों के लिए केवली को विचार नहीं करना पड़ता और न केवली के विचार होता है, क्योंकि विचार तो मोही जीवों के होता है। -जें.ग.9-1-64/IX/क्ष आ. सा. केवली के भावमन के बिना भी मनोयोग शंका-धवल पुस्तक १ पृ० २७९ पर मनोयोग का लक्षण "भावमनसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो मनोयोगः" किया है। केवली भगवान के भावमन नहीं होता है अतः उनके मनोयोग नहीं हो सकता ? समाधान-सयोगी केवली जिनके मनोयोग होता है ऐसा द्वादशांग का निम्न सूत्र है-"मणजोगो सच्चमणजोगो असच्चमोसमणजोगो सणिमिच्छाइदि जाव सजोगकेवलि त्ति ॥५०॥ मनोयोग, सत्यमनोयोग तथा असत्यमृषामनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक होता है। धवल पु० १पृ० २७९ पर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy