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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५५ विशेष-यह अर्थ श्रीमान पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य कृत टीका के आधार से लिखा गया है, विशेष जानकारी के लिये उक्त टीका पुस्तक १ पृष्ठ ४८३ से ४८९ तक देखना चाहिये । -जे. ग. 31-1-63/IX/ मो. ला. केवली के परोक्षज्ञान का प्रभाव शंका-जानावरण कर्म का क्षय होजाने से श्री अरहन्त भगवान के सर्वज्ञान प्रगट हो गया है, फिर यह कहना कि श्री अरहंत भगवान के परोक्ष ज्ञान नहीं है, उचित नहीं है। यदि उनके परोक्ष ज्ञान नहीं तो सर्ग ज्ञान कहना नहीं बन सकता। समाधान-ज्ञानावरण कर्म के क्षय से श्री १००८ अरहन्त भगवान के सकल प्रत्यक्ष क्षायिक केवलज्ञान प्रगट हुआ है। परोक्ष ज्ञान अथवा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चारों ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं. क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। ज्ञानावरण कर्म का क्षय हो जाने पर ज्ञानावरण का क्षयोपशम संभव नहीं है, क्योंकि क्षय हो जाने पर कर्म का सत्त्व नहीं रहता। इसलिये श्री १००८ अरहन्त भगवान के मात्र एक केवलज्ञान है, शेष चार ज्ञान नहीं हैं, क्योंकि वे क्षायोपशमिक ज्ञान हैं। कहा भी है-- "उप्पण्णम्मि अणते गम्मि य छादुमथिए गाणे।" जयधवल पु० १ पृ० ६८ अर्थात्-क्षायोपशमिक ज्ञान के नष्ट होजाने पर अनन्त ज्ञान ( क्षायिक केवलज्ञान ) उत्पन्न होता है। इससे स्पष्ट है कि क्षायोपशमिक ज्ञान और क्षायिकज्ञान ये दोनों ज्ञान एक जीव में एक साथ नहीं रहते हैं। इसलिये श्री १००८ अरहन्त भगवान के क्षायोपशमिक रूप परोक्ष ज्ञान नहीं है। किन्तु बाधक-कारण-स्वरूप ज्ञानावरण कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से उनके सर्व ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान प्रगट हो गया। -जै.ग. 22-2-68/VI/मुमुक्ष केवली को श्रुत के विकल्प ( नय ) नहीं हैं शंका-द्रध्याथिक नय से पदार्थ नित्य है, पर्यायाथिक नय से पदार्थ अनित्य है; काँटा स्वभावनय से तीक्ष्ण है. पिन अस्वभाव नय से तीक्ष्ण है। काल मरण का काल नियत है, अकाल मरण का काल अनियत है; इत्यादि नयों के विकल्प रूप ज्ञान क्या श्री अरहंत भगवान को हैं ? समाधान-नयों का विकल्प तो श्रुतज्ञान है। कहा भी है"अतविकल्पो नयः।" आलाप पद्धति । "सुयणाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंग-संभूदो ॥२६३॥" स्वा० का० अ० अर्थात्-नय श्र तज्ञान के विकल्प हैं। श्री १००८ अरहन्त भगवान के एक केवलज्ञान ही है। उनके श्रु तज्ञान नहीं है। अतः श्रुत के विकल्प भी नहीं है। -जे. ग. 21-12-67/VII/मुमुक्षु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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