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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १४७ संयत हैं उन्हें सूक्ष्मसांपराय-शुद्धिसंयत कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक या छेदोपस्थापना संयम को धारण करने वाले साधु जब अत्यन्त सूक्ष्म कषाय वाले हो जाते हैं तब वे सूक्ष्म-साँपराय-शुद्धि-संयत कहे जाते हैं। धवल पुस्तक १ पृ० ३७१। इस आगम प्रमाण से सिद्ध है कि जब अत्यन्त सूक्ष्म कषाय रह जाती है तब सामायिक या छेदोपस्थापना संयम की उस विशेष अवस्था का नाम सूक्ष्म सांपराय-शुद्धि-संयम है। -जें. ग. 27-4-64/1X/मदनलाल सूक्ष्मसाम्परायी के अघातिया कर्मों का प्रदेशबन्ध अल्प शंका-महाबंध पुस्तक ६ पृष्ठ १ पर लिखा है कि 'जस्स दीहादिदि तस्स भागो बहुगो' तो क्या इस युक्ति का सूक्ष्म साम्पराय मार्गणा में समन्वय हो सकता है कि जिसको दीर्घ स्थिति हो उसको प्रदेश का भाग बहुत मिलता है, इससे तो अघातिया कर्मों को बहुत प्रदेश मिल जायेंगे। समाधान-'वेदनीय के अतिरिक्त शेष कर्मों में जिसकी स्थिति अधिक है उसको प्रदेश बंध में बहभाग मिलता है इस नियम में 'स्थिति' शब्द से तात्कालिक बंध स्थिति नहीं ग्रहण करनी चाहिये। किन्तु 'कर्म स्थिति' से अभिप्राय है। अघातिया कर्मों की 'कर्म स्थिति' घातिया कर्मों की कर्म स्थिति से न्यून है अतः दसवें गुणस्थान में भी प्रघातिया कर्मों की अपेक्षा घातिया कर्मों को प्रदेशबन्ध में बहभाग मिलेगा । अथवा उपर्युक्त नियम साधारण है। श्रेणी में जहाँ पर स्थितिबन्ध का क्रम बदल जाता है वहाँ पर यह नियम लागू नहीं होगा। महाबंध पुस्तक ६ पृ० २ पर कहा भी है 'छह प्रकार के कर्मों का बंध करने वाले ( दसवें गुणस्थान वाले ) जीवों के भी नाम व गोत्र कर्म का भाग स्तोक है, इससे ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का भाग विशेष अधिक है और इस से वेदनीय कर्म का भाग विशेष अधिक है।' अतः सूक्ष्मसाम्पराय मार्गणा में भी अघातिया कर्मों को बहत प्रदेश ... नहीं मिलेंगे किन्तु अल्प प्रदेश मिलेंगे। --जै. ग......../VII/७. प. ला. उपशम श्रेणी में तो चारित्रमोह का उपशम ही होता है शंका-क्षायिक सम्यग्दृष्टि जो क्षपक भणी चढ़ता है वही नौवें गुणस्थान में तीनों वेद का नाश करता है या उपशम श्रेणी बाला भी? समाधान-क्षायिक सम्मग्दृष्टि हो या उपशम-सम्यग्दृष्टि हो जो भी उपशम श्रेणी चढ़ता है वह नौवें गुणस्थान में तीनों वेदों का उपशम करता है नाश नहीं करता है । ग्यारहवें गुणस्थान से गिरने पर वही वेद पुनः उदय में आ जाता है जिस वेद से उपशम श्रेणी चढ़ा था। 'अन्तरे को पढम-समयादो उवरि अन्तोमुहुत्तं गंतूण असंखेज्ज-गुणाए सेढीए णउसयवेदमुवसामेदि । तदो अंतोमुहुत्तंगतूण णवुसयवेवमुवसामिदविहाणेणित्थिवेदमुवसामेदि । तदो अन्तोमुहत्तं गंतूण तेणेव विहिणा छण्णोकसाए पुरिसवेद चिराणसन्त-कम्मेण सह जुगवं उवसामेदि ।" धवल पु० १ पृ० २१२-२१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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