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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] पंचम गुरणस्थान में एक देश संयम हो जाता है, संसार देह भोगों से विरक्तता हो जाती है । असीम इच्छा रुक कर सीमित हो जाती है। निरर्गल प्रवृत्ति बन्द हो जाती है। क्रिया यत्नाचार पूर्वक होती है। इसलिये भी चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा पंचम गुणस्थान में आहार-विहार आदि के समय भी आस्रव बंध थोड़ा होता है और एक देश संयम के कारण गुण श्रेणी निर्जरा होती है। -जे. ग. 27-8-64/IX/ध. ला. सेठी ___.. संयमासंयम एवं संयम के हेतुभूत क्षयोपशम का लक्षण शंका-तत्त्वार्थसूत्र अ० २ सूत्र ५ को सर्वार्थसिद्धि टीका में जो क्षयोपशम का स्वरूप दिया है तथा अ० ९ सूत्र ४५ की टीका में श्रावक और विरत का लक्षण देते हुए 'क्षयोपशम' शब्द का जो प्रयोग किया है वह प्रायः अन्य सभी ग्रंथकारों से निराला है और इसीलिए ज्ञानपीठ प्रकाशन पृ० १५७ में अनुवादक महाशय ने 'प्रत्याख्यान कषायोदय' पद का देशघाती परक अर्थ किया है, पर तब सर्वघाती स्पर्द्धकों का क्या होगा? यह नहीं बताया गया है। अगर सर्वार्थ सिद्धिकार को यही इष्ट होता तो उन्होंने ऐसा क्यों नहीं लिख दिया-'प्रत्याख्यान-कषायस्य च संज्वलन कषायस्य देशघाती स्पर्द्ध कोदये' श्रुतसागर ने तत्त्वार्थवृत्ति पृ० ८४ पर वही भाव लिखा है ( देशोदय न लिखकर दोनों का सिर्फ उदय लिखा है )। पर राजवातिककार और श्लोकवातिककार दोनों सर्वार्थसिद्धि के इस विषय को प्रायः छोड़ गये हैं । इस सबमें क्या रहस्य है ? समाधान-सर्वार्थ सिद्धि अ० २ सूत्र ५ में क्षयोपशम का लक्षण इस प्रकार दिया है 'सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय होने से और उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से, देशघातीस्पर्द्धकों का उदय होने पर क्षयोपशमिक भाव होता है' संयमासंयम का स्वरूप इस प्रकार कहा है "अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण इन आठ कषायों के उदयाभावी क्षय होने से और सदवस्थारूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय होने पर और संज्वलन कषाय के देशघातीस्पर्द्धकों के उदय होने पर तथा नोकषाय का यथासम्भव उदय होने पर जो विरताविरत रूप क्षयोपशमिक परिणाम होता है वह सयमासंयम कहलाता है।" श्री राजवार्तिक में भी इसी प्रकार कहा है। सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सूत्र ४५ में इस प्रकार कहा है 'पुनः वह ही चारित्र मोहनीय कर्म के एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हआ उससे असंख्यगूरण निर्जरावाला होता है।" प्रत्याख्यानावरण कर्म, संज्वलन व नौ नोकषाय का उदय श्रावक के निर्जरा में कारण नहीं है, अतः वहाँ पर निर्जरा का प्रकरण होने से प्रत्याख्यानावरण आदि के उदय का कथन नहीं किया। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से निर्जरा होती है अतः उसका ही कथन किया है। इस कथन का यह अभिप्राय नहीं है कि श्रावक के प्रत्याख्यानावरण आदि कषायों का उदय नहीं होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम कहने का यह अभिप्राय है कि वर्तमान में उदय पाने वाले अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम के निषेकों का उदयाभावी क्षय और आगामी उदय आने वाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम होता है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से कषाय चार प्रकार की है। उनमें से अनन्तानुबन्धी कषाय आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करती है और अप्रत्याख्यानादि कषायों के अनन्त उदय रूप प्रवाह का कारणभूत भी अनन्तानुबन्धी कषाय है। 'अप्रत्याख्यान' शब्द देशसंयम का वाचक है। देशसंयम का जो आवरण करता है वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत ये तीनों एक अर्थ वाले नाम हैं । संयम अर्थात महाव्रत को जो आवरण करता है वह प्रत्याख्यानावरण कषाय है। जो चारित्र को नहीं विनाश करते हए संयम में मल को उत्पन्न करते हैं वे संज्वलन कषाय हैं । षटखंगगम पुस्तक ६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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