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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३१ (१) चतुर्थ गुणस्थान में स्वरूपाचरण; निश्चल अनुभूति तथा सराग चारित्र नहीं है (२) 'अनुभूति' स्वरूपाचरण चारित्र है शंका- अयोमार्ग में स्व० पं० अजितकुमारजी ने लिखा था कि चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता अन्यथा गृहस्थ अवस्था में ही कर्मों का क्षय होकर मुक्ति का प्रसंग आ जायगा । चौथे गुणस्थान में गृहस्थ के हेय, उपावेय का ज्ञान तथा भेदविज्ञान व स्वानुभूति होती है, वही तो स्वरूपाचरण चारित्र का अंश है । पाँचवें गुणस्थान में अणुव्रत हो जाने से स्वरूपाचरण चारित्र के अंश में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार बढ़ते बढ़ते अहंतों के सम्पूर्ण रूप से स्वरूपाचरण चारित्र हो जाता है। अतः चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र क्यों न माना जाय ? अन्यथा उस चारित्र को क्या कहा जाय ? समाधान — यथाख्यात चारित्र को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं। कहा भी है "रागड बाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं ।" परमात्मप्रकाश २ / ३६ अर्थ - रागद्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथारूपात चारित्र स्वरूपाचरण चारित्र है वही निश्चय चारित्र है । "स्वरूपे चरणं चारित्रं वीतरागचारित्रमिति । " परमात्मप्रकाश २/४० जो वीतराग चारित्र है वही स्वरूपाचरण चारित्र है। यथाख्यात चारित्र अर्थात् वीतराग चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान से पूर्व नहीं होता है प्रत: स्वरूपाचरण चारित्र भी ग्यारहवें गुणस्थान से पूर्व नहीं होता है । 'यथाख्यात चारित्र अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र' चारित्र गुरण की पर्याय है जो संज्वलन कषायोदय के अभाव में उत्पन्न होती है । जब तक स्वरूपाचरण चारित्र का घातक संज्वलन कषाय का उदय है उस समय तक यथाख्यात चारित्र अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र का अंश भी उत्पन्न नहीं हो सकता । चारित्र की अन्य पर्याय उत्पन्न हो सकती है । चतुर्थ गुणस्थान में जहाँ चारित्र का भी अंश नहीं है वहाँ स्वरूपाचरण चारित्र का अंश कैसे संभव हो सकता है ? चतुर्थं गुणस्थान में चारित्र का निषेध निम्न प्रार्ष ग्रन्थों से हो जाता है समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम् । स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थाने चतुर्थके ॥७४ / ५४३॥ उत्तरपुराण सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से सहित ही सम्यक् चारित्र होता है परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक् चारित्र के बिना भी सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होता है। "सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम् ।" रा. वा. १/१/७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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