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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १२७ इन्द्रियस्तस्करैर्लोको, वराको व्याकुलीकृतः । धर्मरत्नं समाहृत्य, मनोराजेन प्रेरितः ॥ इन्द्रिय तस्करदुर्धरा अपि खला लुण्ठन्ति जीवस्यतान् । वृतज्ञानगुणादि-रत्ननिचितं, भाण्डं जगत्तारकम् ॥ ये सन्नह्य यतीश्वरा यमधनुश्चादाय मार्गे स्थितान् । घ्नन्ति ध्यानशरेण तत्र सुखिनो, यान्त्येव मुक्त्यालयम् ॥ मनरूपी राजा से प्रेरित होकर इन्द्रियरूपी चोरों ने धर्म रूपी रत्न को चुराकर बेचारे जगत् को व्याकूल कर रवखा है । इन्द्रियरूपी दुर्धर तथा दुष्ट चोर, जीव के जगत्तारक सम्यक् चारित्र तथा ज्ञान आदि गुणरूपी रत्नों को लूट रहे हैं। जो मुनिराज चारित्ररूपी धनुष को लेकर, मार्ग में खड़े हुए उन इन्द्रियरूपी चोरों को ध्यानरूपी बाणों के द्वारा मारते हैं, वे ही सुखपूर्वक मोक्ष महल को प्राप्त होते हैं। श्री १०८ कुलभद्राचार्य भी लिखते हैं वरं हालाहलं भुक्तं विषं तद्भवनाशनम् । न तु भोगविष भुक्तमनन्तभवदुःखदम् ॥ इन्द्रियप्रभवं सौख्यं, सुखाभासं न तत्सुखम् । तच्च कर्मविबन्धाय, दुःखदानक पण्डितम् ॥ अक्षाण्येव स्वकीयानि, शत्रवो दुःखहेतवः । विषयेषु प्रवृतानि, कषायवशवर्तिनः । [सार समुच्चय ७६-७९] किम्पाकस्य फलं भक्ष्यं, कदाचिदपि धीमता । विषयास्तु न भोक्तव्या, यद्यपि सुपेशलाः ॥ [सा० स० ८९] को वा तृप्ति समायातो, भोगै रितबन्धनः । देवो वा देवराजो, वा चक्रांको वा नराधिपः॥ उसी एक जन्म को नाश करने वाले हलाहल विष को खा लेना अच्छा है, परन्तु अनेक जन्मों में दुःख देने वाले इन्द्रिय भोगरूपी विष को भोगना ठीक नहीं है । इन्द्रिय भोगरूपी सुख सुखाभास है सच्चा सुख नहीं है। वह तो विशेष कर्म बन्ध कराने वाला है और महान् दुःखदायक है। विषयों में प्रवृत्त इन्द्रियाँ ही दुःख का कारण हैं और आत्मा की शत्रु हैं । स्वादिष्ट तथा विषवत् फल को देने वाला किंपाक फल कदाचित् खा लेना अच्छा है किंतु बड़े सुन्दर होने पर भी इन्द्रियों के भोग भोगना अच्छा नहीं है। इंद्रिय-भोग पाप को बाँधने वाले हैं। देव, इंद्र, चक्रवर्ती भी इन भोगों से तृप्त नहीं हुए, अन्य तो कैसे तृप्त हो सकता है । सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकरणं विसमं । नं इंदियेहि लद्ध तं, सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥ इन्द्रिय जनित सुख पराधीन है, बाधा सहित है, विच्छिन्न है और विषम है; अत: वह सुख नहीं अपितु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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