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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] चाहिये ? संयत समकित की तपस्या कार्यकारी नहीं है शंका- अणुव्रत आदि न पालता हुआ सम्यग्दृष्टि जो तप करता हुआ कहा गया है उस तप की व्याख्या समाधान - एका समाधान में श्री कुंदकुद आचार्य द्वारा रचित श्री मूलाचार की निम्न गाथा उद्घृत की गई थी, उस पर यह शंका की गई है । [ १२५ सम्मादिस्सि कि अविरदस्य ण तवो महागुणो होदि । होदि हु हत्यिण्हाणं चुदच्छिदकम्म तं तस्स ॥ ४९ ॥ व्रत रहित सम्यग्दृष्टि का तप महागुण ( महोपकारक ) नहीं है । अविरत सम्यग्दृष्टि का यह तप हस्तिस्नान तथा चु दच्छिद कर्म के समान है । श्री वसुनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती महानाचार्य ने इसकी टीका में लिखा है- "गुणोऽनेन कृत इत्यत्रोपकारे वर्तते इहोपकारे वर्त्तमानो गृह्यते । तेन तपो महोपकारं भवति । कर्मनिर्मूलनं कर्तुमसमर्थं तपोऽसंयतस्य दर्शनान्वितस्यापि कुतो यस्माद्भवति हस्तिस्नानं । यथा हस्ती स्नानोपि न नैर्मल्यं वहति पुनरपि करेणार्जित पांशु पटलेनात्मानं मलिनयति तद्वत्तपसा निर्जीर्णोऽपि कर्माशे बहुतारादानं कर्मणोऽसंयममुखेनेति दृष्टांतांत रमण्याचष्टे दच्छिदक चुवं काष्ठं छिनत्तीति चुं दच्छिद्रज्जुस्तस्याः कर्म क्रिया, यथा चुं दच्छिद्रज्जोरुद्व ेष्टनं वेष्टनं च भवति तद्वत्तस्यासंयतस्य तत्तपः । अथवा चुदच्छुदगं व-चु दच्युतकमिव मंथनचर्मपालिकेव तस्संयमहीनं तपः । दृष्टांतद्वयोपन्यासः किमर्थ इति चेन्नैष दोषः अपगतात्कर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः । आर्द्रतनुतया हि बहुतरमुपादत्त रजः, बंधरहिता निर्जरा स्वास्थ्यं प्रापयति नेतरा बंधसहभाविनीति । किमिवं ? चुदच्छिदः कर्मेव – एकत्र वेष्टयत्यन्यत्रोद्वेष्टयतिः तपसा निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहुतरं गृह्णाति कठिनं च करोतीति ॥ ४९ ॥ " इस गाथा में गुण शब्द से उपकार ग्रहरण किया गया है । कर्मों को निर्मूल कर देना अनशनादि तप का उपकार है । सम्यग्दर्शन से सहित होने पर भी असंयत के तप कर्मों को निर्मूल करने में असमर्थ हैं जैसे गज स्नान; इसलिये अविरत सम्यग्दष्टि का अनशनादि तप उपकारक नहीं है । जैसे हाथी स्नान करके भी निर्मलता धारण नहीं करता है पुनः अपनी शूड से मस्तक पर और पीठ पर धूलि डालकर सर्व अंग मलिन करता है । वैसे तप से कमश निर्जीर्ण होने पर भी अविरत सम्यग्दृष्टि जीव असंयम के द्वारा बहुतर कमश को ग्रहण करता है । दूसरा दृष्टान्त चुदच्छिद कर्म का है । लकड़ी में छिद्र पाड़ने वाला बर्मा छेद करते समय डोरी बांधकर घुमाते हैं । उस समय उसकी डोरी एक तरफ से ढीली होती हुई दूसरी तरफ से उसको दृढ़ बद्ध करती । वैसे अविरत सम्यग्दष्टि का पूर्व बद्ध कर्म निर्जीर्ण होता हुआ उसी समय असंयम द्वारा नवीन कर्म बँध जाता है । अतः असंयत सम्यग्वष्टि का तप महोपकारक नहीं होता । Jain Education International यहाँ दो दृष्टांतों की क्या आवश्यकता है ? उत्तर - जितना कर्म श्रात्मा से छूट जाता है उससे बहुतर कर्म असंयम से बँध जाता है ऐसा अभिप्राय निवेदन के लिये हस्तिस्नान का दृष्टांत है। हाथी का शरीर स्नान गीला होता है, अतः उस समय वह अपने अंग पर बहुत धूलि डालकर अपना अंग मलिन करता है । जो निर्जरा बंधरहित होती है वह आत्मा को स्वास्थ्य की ( शुद्धता की ) प्राप्ति करने में सहायक होती है । बंधसहभाविनी निर्जरा स्वास्थ्य ( शुद्धता ) प्रदान में असमर्थ है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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